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एकादेशः सर्गः
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दिनकरकरजालतापयोगात्प्रतिदिवसं हिमपिण्डवन्महीयान् । शशिकरधवलो विलीयतेस्म द्विरदरिपुः प्रशमे निधाय चित्तम् ॥६२
आर्यागीतिः इति मासमेकमचलक्रियया समुपोषितो भवभयाकुलितः । जिनशासनानुगतधीविजहे दुरितैः स दूरमसुभिश्च हरिः ॥६३
___ वसन्ततिलकम् सौधर्मकल्पमथ धर्मफलेन गत्वा सद्यो मनोरमवपुः स मनोहरेऽभूत् । देवो हरिध्वज इति प्रथितो विमाने सम्यक्त्वशुद्धिरथवा न सुखाय केषाम् ॥६४ प्रत्युत्थितो जय जयेति वदद्धिरुच्चैरानन्दवाद्यकुशलैः परिवारदेवैः । दिव्याङ्गनाभिरभिमङ्गलधारिणीभिः कोऽहं किमेतदिति चिन्तयति स्म धीरः॥६५ ज्ञात्वा क्षणादवधिना सकलं स्ववृत्तं तस्मात्सतन्मुनियुगं सह तैः समेत्य ।। अभ्यर्च्य हेमकमलैश्च मुहः प्रणामैरित्यब्रवीत् प्रमदनिर्भरचित्तवृत्तिः ॥६६ योऽभ्युद्धतो दुरितखज्जनतो भवद्धिर्बद्ध्वा घनं हितकथोरुवरत्रिकाभिः । सोऽहं हरिः सुरवरोऽस्मि सुरेन्द्रकल्पः कस्योन्नति न कुरुते भुवि साधुवाक्यम्॥६७
चारों ओर से चीथते थे तो भी वह क्षण भर के लिये भी उत्कृष्ट समाधि को नहीं छोड़ता था सो ठीक ही है क्योंकि क्षमावान् मनुष्य कष्ट के समय भी विमूढ़ नहीं होता है-भूल नहीं करता है ॥ ६१ ॥ जिस प्रकार सूर्यकिरणों के संताप से बर्फ का पिण्ड प्रतिदिन विलीन होता जाता हैपिघलता जाता है उसी प्रकार चन्द्रमा के समान सफेद वह बड़ा भारी सिंह प्रशमगुण में अपना चित्त लगा कर प्रतिदिन विलीन होता जाता था क्षीण होता जाता था॥ ६२ ॥
इस प्रकार अचल रहकर जिसने एक माह तक उपवास किया था, जो संसार के भय से आकुल था, तथा जिनधर्म में जिसकी बुद्धि लग रही थी ऐसा वह सिंह पाप और प्राणों के द्वारा दूर छोड़ दिया गया। भावार्थ-उसका मरण हो गया ॥ ६३ ॥ तदनन्दर धर्म के फल से शीघ्र हा सौधर्म स्वर्ग को प्राप्त कर मनोहर विमान में मनोहर शरीर का धारक हरिध्वज नाम से प्रसिद्ध देव हुआ सो ठीक ही है क्योंकि सम्यक्त्व की शुद्धि किन के सुख के लिये नहीं होती? ॥ ६४ ।। 'जय हो जय हो' इस प्रकार जोर से उच्चारण करने वाले तथा हर्ष के बाजे बजाने में कुशल परिवार के देवों और मङ्गल द्रव्यों को धारण करने वाली देवाङ्गनाओं ने जिसकी अगवानी की थी ऐसा वह धीर वीर देव विचार करने लगा कि मैं कौन हूँ और यह क्या है ।। ६५ ।। क्षण भर में अवधिज्ञान से अपना सब समाचार जान कर वह उन परिवार के देवों के साथ उस स्वर्ग से चलकर पूर्वोक्त दोनों मुनिराजों के समीप गया और स्वर्ण कमलों तथा प्रणामों के द्वारा बार-बार उनको पूजा कर हर्ष-विभोर होता हुआ इस प्रकार बोला ।। ६६ ॥
आप लोगों ने हित कथा रूपी मजबूत रस्सियों से जिसे अच्छी तरह बाँधकर पाप रूपी
१. हैमकलशैश्च म० ।