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एकादशः सर्गः
अविमहिषमदेभकुक्कुटानां सपदि वहन्वपुरग्रतोऽसुराणाम् । अरुणितनयनो रुषा सहान्यैः श्रमविवशोऽपि स युध्यते प्रकामम् ॥२१ करचरणयुगविवजितोऽपि द्रुतमधिरोहति शाल्मलं भिया सः । विधुरितहृदयोऽम्बरीषमायामय करतर्ज़निकाग्रतर्जनेन ॥२२
सुखमिदमिति यद्यदात्मबुद्धया ध्रुवमवधार्यं करोति तत्तदाशु | जनयति खलु तस्य भूरि दुःखं न हि कणिकापि सुखस्य नारकाणाम् ॥२३ इति नरकभवाद्विचित्रदुःखात्पुनरभवस्त्वमिह द्विपारिरेत्य । अधिवसति चिरं कुयोनिमध्यं ननु तनुमान् घनबद्धदृष्टिमोहः ॥२४ इति परिकथिता भवावलिस्ते विदितभवस्य मृगेन्द्र सप्रपञ्चा । प्रकटमथमयाभिधास्यमानं विमलधिया हितमात्मनः शृणु त्वम् ॥२५ अविरतिसहितैः कषाययोगे रविमलदृष्टितया प्रमाददोषैः । परिणमति निरन्तरं सहात्मा भवति ततः परिणामतोऽस्य बन्धः ॥२६
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'जो अन्य स्त्रियों का आलिङ्गन किया है तथा उनके स्थूल स्तनों के आघात से अपने वक्षःस्थल को युक्त किया है यह उसी का फल है ॥ २० ॥
क्रोध से जिसके नेत्र लाल-लाल हो रहे हैं ऐसा वह नारकी यद्यपि थकावट से विवश हो जाता है तोभी शीघ्र ही भेड़, भैंसा, मत्त हाथी और मुर्गा का शरीर रखकर ऐसे ही अन्य भेड़ आदि के साथ असुर कुमारों के आगे भारी युद्ध करता है ॥ २१ ॥ अम्बावरीष देवों के मायामय हाथ की तर्जनियों के अग्रभाग की डांट से जिसका हृदय दुःखी हो रहा है ऐसा वह नारकी यद्यपि हाथ और चरणों के युगल से रहित होता है तो भी भय से शीघ्र ही सेमर के वृक्ष पर चढ़ता है । भावार्थ - अम्बावरीष जाति के असुर कुमार उसके हाथ-पैर तोड़ देते हैं ऊपर से विक्रिया निर्मित की तर्जनी अङ्गुलिया दिखाकर उसे कांटेदार सेमर के वृक्ष पर चढ़ने के लिये बाध्य करते हैं जिससे शक्ति न रहते हुए भी वह उनके भय से सेमर के वृक्ष पर चढ़ता है ॥ २२ ॥ 'यह सुख पहुँचाने वाला है' ऐसा अपनी बुद्धि से विचार कर वह जिस-जिस कार्य को करता है वही वही कार्य निश्चय से शीघ्र ही उसे बहुत भारी दुःख उत्पन्न करने लगता है सो ठीक ही है क्योंकि नारिकयों को सुख का लेश भी नहीं होता है || २३ || इस तरह विचित्र दुःखों से युक्त नरकभव से आकर तुम यहाँ फिर सिंह हुए हो सो ठीक ही है क्योंकि तीव्र मिथ्यादृष्टि जीव निश्चय से चिरकाल तक कुयोनियों के मध्य निवास करता है ॥ २४ ॥ हे मृगराज ! इस प्रकार विस्तार से तुम्हारी भवावली - पूर्वभवों की सन्तति कही गई है । जाति-स्मरण के कारण इस भवावली को तू जानता भी है । अब तेरी आत्मा का हित क्या है ? यह में स्पष्ट रूप से कहूँगा सो उसे निर्मल बुद्धि से सुन || २५॥
यह आत्मा निरन्तर मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, योग और प्रमाद के दोष रूप परिणमन करता है उसी परिणमन से इसके बन्ध होता है ।। २६ ॥ बन्ध के दोष से यह जीव एक गति