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दशमः सर्गः
पृथ्वी
प्रसाधनमपश्चिमं कुशल शिल्पिभिः कल्पितं प्रमृज्य नयनद्वयं विगलदश्रुलेशं मुहुः । अशेत हरिरुद्वहन्बहिरबोधनिद्रावशाद् विभावसुशिखाकलापनवपल्लवस्त्रस्तरे ॥८८
उपजातिः
राज्यश्रियं श्रीविजयाय दत्त्वा हलायुधः संसृतिदुःखभीरुः । सुवर्णकुम्भं प्रणिपत्य दीक्षां नृपैः सहस्रैः सहितः प्रपेदे ॥८९
शार्दूलविक्रीडितम्
हत्वा घातिचतुष्टयं हलधरो रत्नत्रयास्त्रश्रिया
पश्यन्केवल लोचनेन युगपत् त्रैलोक्यवस्तुस्थितिम् । भव्यानामभयप्रदानर सिको भूत्वा पुनर्नष्ठितः
सिद्धानां सुखसम्पदामभजत स्थानं पदं शाश्वतम् ॥९० इत्य सगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते बलदेवसिद्धिगमनो नाम दशमः सर्गः ।
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पश्चात् मरने के लिये उद्यत थी, उसे बलभद्र ने स्वयं सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा यह कहकर रोका कि यह आत्माघात की चेष्टा अपने लिये सैकड़ों भवों का कारण है तथा निरर्थक है ॥८७॥ जिनसे आँसुओं के कण झर रहे थे ऐसे दोनों नेत्रों को बार-बार पोंछ कर कुशल कारीगरों के द्वारा निर्मित श्रेष्ठ अलंकरण को धारण करनेवाले त्रिपृष्ट नारायण ने बाह्य पदाथों का ज्ञान न कराने वाली निद्रा के बरा होने से अग्नि ज्वालाओं के समूह रूपी नूतन पल्लवों के विस्तर पर शयन किया । भावार्थ - शरीर की सजावट कर त्रिपृष्ट के शरीर को अग्नि की चिता पर लिटाया गयादाह-संस्कार किया गया ॥ ८८ ॥ संसार के दुःखों से भयभीत बलभद्र ने त्रिपृष्ट के ज्येष्ठपुत्र श्रीविजय के लिये राज्य लक्ष्मी देकर तथा सुवर्णकुम्भ नामक गुरु को प्रणाम कर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ।। ८९ ।। बलभद्र मुनि रत्नत्रय रूपी शस्त्रों की लक्ष्मी के द्वारा चार घातिया कर्मों का क्षयकर केवलज्ञानी बन गये । अब वे केवलज्ञान रूपी नेत्र के द्वारा तीन लोक के पदार्थों की स्थिति को एक साथ देखने लगे । भव्य जीवों को अभय दान देने के रसिक होकर वे योग निरोध से अवस्थित हुए और सिद्धों की सुख-संपदा के स्थानभूत शाश्वत पद को प्राप्त हुए ।। ९० ।।
इस प्रकार असग कविकृत श्रीवर्द्धमान चरित में बलदेव के मोक्ष गमन का वर्णन करने वाला दशवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।