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द्वितीयः सर्गः सुतं गृहीत्वा वजता तपोवनं कुलस्थितिस्तेन विनाशितेत्ययम् । जनापवादो मम पुत्र जायते ततो गृहे तिष्ठ दिनानि कानिचित् ॥३० इतीरयित्वा तनयस्य मूर्धनि स्वयं पिता स्वं मुकुटं न्यविक्षत । विचित्ररत्नस्फुरदचिषां चयविनिर्मिताखण्डलचापमण्डलम् ॥३१ नेतोत्तमाङ्गस्थितहस्तकुड्मलानुवाच भूपानिति मन्त्रिभिः समम् । योता ममायं भवतां महात्मनां करे करन्यास इवार्पितः सुतः ॥३२ कलत्रमित्रस्थिरबन्धुबान्धवान्यथावदापृच्छय विनिर्ययौ गृहात् । क्षणं तदाक्रन्दरवानुसारिणी धियं च दृष्टिं च पुरो निवेशयन् ॥३३ नपैः समं पञ्चशतैः स पञ्चमी गति यियासुः पिहितास्रवान्तिके। प्रपद्य दीक्षामनवद्यचेष्टितामचेष्टताष्टोद्धतकर्मणां जये ॥३४ याते गुरौ श्रेयसि तद्वियोगजं विषादमासाद्य तताम नन्दनः। तथावगच्छन्नपि संसृतेः स्थिति सतां वियोगे हि बुधोऽपि खिद्यते ॥३५ अमात्यसामन. सनाभिसंहतिः पितु वियोगव्यथितं व्यनोदयत् । कथाभिरन्यैरपि तं महीपति महीयसां को न सुखाय चेष्टते ॥३६ उदाजहारेति सभा तमीश्वरं विषादमुन्मुच्य नरेन्द्र सम्प्रति ।
प्रजाः समाश्वासय नाथ वजिताः शुचो वशः कापुरुषो न धीरधीः ॥३७ ॥ २९ ॥ 'पुत्र को लेकर तपोवन जाते हुए पिता ने कुल की स्थिति को नष्ट करा दिया' ऐसा लोकापवाद मेरा होना है इसलिये हे पुत्र ! कुछ दिन तक घर में रहो ॥ ३० ।। इस प्रकार कहकर पिता ने अपना वह मुकुट स्वयं ही पुत्र के सिर पर रख दिया जो कि नाना रत्नों की देदीप्यमान किरणों के समूह से इन्द्रधनुष के मण्डल को निर्मित कर रहा था ॥ ३१ ॥ तदनन्तर नम्रीभूत मस्तक पर अञ्जलि बाँध कर बैठे हुए राजाओं और मन्त्रियों से राजा ने कहा कि वन को जाते हुए मैंने आप सब महात्माओं के हाथ में यह पुत्र धरोहर के समान समर्पित किया है ।। ३२ ।। स्त्री, मित्र तथा स्थायी भाई-भतीजों से विधिपूर्वक पूछ कर वह घर से निकल पड़ा । क्षणभर के लिये स्त्री-मित्र आदि के रोने के शब्दों का अनुसरण करनेवाली अपनी बुद्धि और दृष्टि को उसने शीघ्र ही उस ओर से हटाकर अग्रिम पथ में स्थापित कर लिया ।। ३३ ।। पञ्चम गति को प्राप्त करने के इच्छुक राजा ने पाँच सौ राजाओं के साथ पिहिजास्रव नामक गुरु के समीप निर्दोष चेष्टावाली दीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार दीक्षाधारण कर वह ज्ञानावरणादि आठ उद्धतकर्मों को जीतने की चेष्टा करने लगा ॥ ३४ ॥ नन्दन, यद्यपि संसार की स्थिति को जानता था तो भी कल्याणकारी पिता के चले जाने पर उनके वियोग से उत्पन्न विषाद को प्राप्त कर दुःखी हो गया सो ठीक ही है; क्योंकि सत्पुरुषों के वियोग में
न भी दुःखी होता ही है ।। ३५ ।। मन्त्री, सामन्त तथा भाइयों का समह पिता के वियोग से पीड़ित उस राजा को कथा-कहानियों और अन्य उपायों से बहलाने लगा सो ठीक ही है; क्योंकि महापुरुषों के सुख के लिये कौन नहीं चेष्टा करता? ॥ ३६ ॥ एक दिन सभा ने अपने उस राजा से कहा कि हे नरेन्द्र ! अब आप विषाद को छोड़कर स्वामिविहीन प्रजा को सम्बोधित कीजिये क्योंकि हीन पुरुष ही शोक के वशीभूत होता है, धीर-वीर बुद्धि को धारण करनेवाला नहीं ।। ३७ ॥ हे
१. तथोत्तमाङ्ग म ।
२. यता म०।