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वर्धमानचरितम्
पुरेव सर्व: क्षितिपाल वासरक्रियाकलापः क्रियतां यथेच्छया । इति प्रभो शोकवशे त्वयि स्थिते सचेतनाः के सुखमासते परे ॥ ३८ पति विशामित्यनुशिष्य सा सभा विसर्जिता तेन गृहानुपाययौ । विषादमुन्मुच्य चकार नन्दनः क्रियां यथोक्तां सकलार्थिनन्दनः ॥३९ अहोभिरल्पैरथ नूतनेश्वरो धियैव खेदेन विना गरीयसा । गुणानुरक्तामकरोद्धरावधू' भयावननामपि शत्रुसंहतिम् ॥४० तदद्भुतं नो तमुपेत्य भूभृतं चलापि लक्ष्मीस्त्वचलत्वमाप यत् । इदं तु चित्रं सकले महीतले स्थिरापि कीर्तिभ्रंमतीति सन्ततम् ॥४१ अननसत्त्वेन विमत्सरात्मना गुणैः शरच्चन्द्रमरीचिहारिभिः । न केवलं तेन सनाभिमण्डलं प्रसाधितं शत्रुकुलं च लीलया ॥४२ इति स्वशक्तित्रयसारसम्पदा क्षितीश्वरे कल्पलतीकृते क्षितौ । दिने दिने राज्यसुखं वितन्वति न्यधत्त गर्भं प्रमदाय तत्प्रिया ॥४३ असूत कालेन ततः सुतं सती प्रियङ्करा प्रीतिकरं महीपतेः । अभिख्या नन्द इतीह विश्रुतं मनोहरं चूतलतेव पल्लवम् ॥४४ विवर्धयन् ज्ञातिकुमुद्वतीमुदं प्रसारयन्नुज्ज्वल कान्तिचन्द्रिकाम् । कलाकलापाधिगमाय केवलं दिने दिनेऽवर्धत बालचन्द्रमाः ॥४५
महीपाल ! दिन की समस्त क्रियाओं का समूह पहले के समान इच्छानुसार किया जाय । हे प्रभो ! जब आप ही इस तरह शोक के वशीभूत होकर बैठे हैं तब दूसरे कौन सचेतन - समझदार पुरुष सुख से बैठ सकते हैं ? || ३८ || इस प्रकार सभा राजा को सम्बोधित किया। सम्बोधन के बाद राजा के द्वारा विसर्जित सभा अपने-अपने घर गई और समस्त याचकों को आनन्दित करनेवाला राजा नन्दन विषाद छोड़ कर समस्त क्रियाओं को यथोक्त रीति से करने लगा ।। ३९ ।। तदनन्तर नवीन राजा नन्दन ने थोड़े ही दिनों में किसी भारी खेद के बिना मात्र बुद्धि से ही पृथिवीरूपी स्त्री को अपने गुणों में अनुरक्त कर लिया तथा शत्रुसमूह को भी भय से विनम्र बना दिया ॥ ४० ॥ वह आश्चर्य की बात नहीं थी कि लक्ष्मी चंचल होने पर भी उस राजा को पाकर अचल हो गई थी परन्तु यह आश्चर्य की बात थी कि कीर्ति स्थिर होने पर भी समस्त पृथिवीतल पर निरन्तर घूमती रहती थी ।। ४१ ।। विशाल पराक्रमी और ईर्ष्याविहीन हृदयवाले उस राजा ने शरद् ऋतु के चन्द्रमा की किरणों के समान मनोहर गुणों के द्वारा न केवल भाईयों के समूह को वशीभूत किया था किन्तु शत्रु समूह को भी अनायास वश में कर लिया था ।। ४२ ।। इस प्रकार अपना उत्साह, मन्त्र और प्रभुत्व इन तीन शक्ति रूप श्रेष्ठ संपत्ति के द्वारा पृथिवी पर कल्पलता के समान सुशोभित राजा जब प्रतिदिन राज्य सुख को विस्तृत कर रहा था तब उसकी वल्लभा ने हर्ष के लिये गर्भ धारण किया ॥ ४३ ॥ तदनन्तर जिस प्रकार आम्रलता मनोहर पल्लव को उत्पन्न करती है उसी प्रकार पतिव्रता रानी प्रियङ्कराने समय होने पर राजा की प्रीति को उत्पन्न करनेवाला वह पुत्र उत्पन्न किया जो कि लोक में नन्द इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।। ४४ ।। जातिरूपी कुमुदिनियों के हर्ष को बढ़ाता और उज्ज्वल कान्तिरूपी चाँदनी को फैलाता हुआ वह बालकरूप चन्द्रमा मात्र कलाओं के समूह की
१. प्रभो म० ।
२. नन्दनाम् ब० ।