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अष्टमः सर्गः
न्यायहीनमिह यस्य वाञ्छितं खेचरः स इति कथ्यते कथम् । जातिमात्रमनिमित्तमुन्नतेः किं प्रयाति गगने न वायसः ॥४० इत्युदीर्यं विरते वचः परं तेजसान्वितमनुत्तरं बले । पीठिकामभिमुखं बच्चोहरः प्रेयं वाचमिति धीरमाददे ॥४१ तेन चित्रमिह बुद्धिबुर्विधो नात्मनीनमवगच्छति स्वयम् । एतदद्भुतमहो विचेतनो यत्परोक्तमपि नाभिनन्दति ॥४२ क्षीरमेव रसनावशीकृतः पातुमिच्छति विडालशावकः । नेक्षते ह्यवधिदुःसहं धनं दण्डपातमवसादनक्षमम् ॥४३
स्वयं कथमिवात्मपौरुषं ख्यापयत्यनुचितं महात्मनाम् । यो न जातुचिदतिमाहवे विक्षते विधुतखङ्गभासुरम् ॥४४
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त्रिपृष्ट नारायण, मदोन्मत्त हाथियों का शिर विदारण करनेवाले भयंकर सिंह के साथ भी क्रीड़ा करने में निपुण है— इसने भयंकर सिंह को अनायास ही नष्ट कर दिया है । इस समय यह निद्राउपेक्षा भाव से भले ही नेत्र बंद किये हो तो भी इसकी सटा - इसके बाल क्या शृंगाल के समान कायर अश्वग्रीव खींच सकता है ? अर्थात् नहीं ॥ ३९ ॥ इस जगत् में जिसकी अभिलाषा न्याय से रहित है वह गगनचर - विद्याधर कैसे कहा जा सकता है ? मात्र जाति उन्नति का निमित्त नहीं हैं क्योंकि आकाश में क्या कौआ भी नहीं चलता है ? भावार्थ - तुम्हारा स्वामी दूसरे की विवाहित स्त्री को चाह रहा है इसलिये उसका यह कार्य न्यायहीन है, इस न्यायहीन कार्य को करता हुआ भी वह अपने आपको विद्याधर - ज्ञानी क्यों मान रहा है ? केवल आकाश में चलने से अपने को विद्याधर मानता है तो वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि आकाश में तो कौवा भी चल लेता है ॥ ४० ॥ इस प्रकार तेजपूर्ण, उत्कृष्ट वचन कहकर जब बलभद्र - विजय चुप हो गए तब सिंहासन की ओर अपना मुखकर द्रुत धीरतापूर्वक निम्न वचन बोला ॥ ४१ ॥ जगत् में वह आश्चर्य की बात नहीं मानी जाती कि बुद्धि का निर्धन - बुद्धिहीन मनुष्य स्वयं आत्महितकारी कार्य को नहीं जानता, किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वह मूर्ख दूसरे के द्वारा कहे हुए भी हितकारीकार्य का अभिनन्दन नहीं करता है - हित की बात सुनकर भी प्रसन्न नहीं होता ॥ ४२ ॥ जिह्वा इन्द्रिय के वश हुआ बिलाव का बच्चा मात्र दूध पीना चाहता है परन्तु फल काल में दुःसह और मृत्यु के करने में समर्थ भयंकर दण्डपात की ओर नहीं देखता है ॥ ४३ ॥ वह मनुष्य, महात्माओं के आगे अपने अनुचित पराक्रम का निरूपण स्वयं कैसे कर सकता है जो कि कभी युद्ध में देदीप्यमान तलवार को कम्पित करनेवाले शत्रु को देखता नहीं है । भावार्थ - युद्ध - विजयी पुरुष ही अपने पौरुष की प्रशंसा कर सकता है, इसके विपरीत जिसने आज तक युद्ध में चमकती हुई तलवार के चलानेवाले शत्रु को देखा ही नहीं वह कैसे स्वयं अपनी गौरव गाथा को प्रकट कर सकता है ? वह भी अन्यत्र नहीं किन्तु रणविजयी महात्माओं के आगे ॥ ४४ ॥ अपनी स्त्रियों के अन्तःपुर में रण की कथा
१. विविनक्ति न बुद्धिदुर्विधः स्वयमेव स्वहितं पृथग्जनः ।
यदुदीरितमप्यदः परैर्न विजानाति तदद्भुतं महत् ॥ ३९ ॥ - शिशुपालवध सर्ग १६.
२. स्मापयत्यनुचितं म० ।