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नवमः सर्गः
१११ शतायुधः शत्रुशतायुधौधैक्पिाटितोरःस्थललक्ष्यदेहः । जित्वा रणे धूमशिखं विरेजे प्रसाधनं भूमिभृतां हि शौर्यम् ॥६० अनन्यसाधारणबाहुवीर्य व्यजेष्ट युद्धऽशनिघोषमुग्रम् । यथार्थतां शत्रुजिदात्मनाम प्रतापवान्नेतुमिव क्षणेन ॥६१ अकम्पनं कम्पितसर्वसैन्यं निपातयामास जयः शरौघैः । तुरङ्गकण्ठस्य जयध्वजं वा पुरस्सरं संयति खेचराणाम् ॥६२ जित्वार्ककीर्तेः सकलां च सेनां पुरो बभूवे हरिकन्धरेण । विमुञ्चताकृष्टशरासनेन नाराचवृष्टि पिहितान्तरिक्षाम् ॥६३ सावज्ञमालोक्य तमर्ककोतिरादाय चापं दृढमप्यभीरुः । आरोपयामास विना प्रयत्नान संभ्रमत्याजिमुखे हि शूरः ॥६४ संधाय वेगेन शरं प्रभावादाकृष्य चापं तरसा मुमोच । एको यथापङ्क्तिगुणक्रमेण प्राप्नोत्यसंख्यानमिषुस्तथासौ ॥६५ तस्यालनात्केतनवंशयष्टि सद्वंशलक्ष्मीलतया स सार्द्धम् । आमूलतः संततपक्षबाणैर्बाणैः स्वनामाक्षरमुद्रिताङ्गः ॥६६ क्रुधा तदीये हरिकन्धरोऽपि लोलोपधाने विजयैकलक्ष्म्याः । भुजे निशातं निचखान रोपं वामेतरे चञ्चलकङ्कपक्षम् ॥६७ एकेन तस्यायतमार्गणेन छित्त्वातपत्रं कदलीध्वजं च ।
अन्येन चूडामणिमुन्मयूखमुन्मूलयामास किरीटकूटात् ॥६८ तथा दृश्य शरीर विदीर्ण हो गया था ऐसा शतायुध नामक योद्धा युद्ध में धूमध्वज को जीत कर सुशोभित हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि शूरवीरता ही राजाओं का आभूषण है ॥६०॥ प्रतापी शत्रुजित् ने अपने नाम को क्षणभर में सार्थकता प्राप्त कराने के लिये ही मानों असाधारण भुजबल से युक्त भयंकर अशनिघोष को युद्ध में जीत लिया था। ६१ ॥ जिसने समस्त सेना को कम्पित कर दिया था तथा जो अश्वग्रीव की विजयपताका के समान युद्ध में विद्याधरों के आगे-आगे चलता
अकम्पन नामक राजा को जय नामक राजा ने वाणों के समूह से नीचे गिरा दिया ॥६२॥ तदनन्तर खिचे हए धनुष से आकाश को आच्छादित करनेवाली वृष्टि को छोड़नेवाला अश्वग्रोव अर्ककीति की समस्त सेना को जीत कर आगे हुआ।। ६३ ॥ निर्भय अर्ककीति ने उसे अनादर के साथ देखकर मजबूत धनुष को उठाया और बिना प्रयत्न के हो चढ़ा दिया सो ठीक ही है क्योंकि शूरवीर मनुष्य रणाग्रभाग में संभ्रम को प्राप्त नहीं होता ॥ ६४ ॥ अर्ककीति ने प्रभाव से धनुष खींचा और उस पर वेग से वाण चढ़ा कर इतने बल से छोड़ा कि एक ही वाण, पंक्ति के गुणक्रम से असंख्यातपने को प्राप्त हो गया ।। ६५ ।। जिनके पङ्ख फैले हुए थे तथा जिनके अङ्ग अपने नाम के अक्षरों से अङ्कित थे ऐसे वाणों के द्वारा अर्ककोति ने, अश्वग्रीव के ध्वजदण्ड को उसकी वंश लक्ष्मीरूपी लता के साथ जड से काट डाला ॥६६ ॥ अश्वग्रोव ने भी क्रोधपूर्वक विजयलक्ष्मी की क्रीड़ा को तकिया के समान दिखनेवाली उसकी दाहिनी भुजा पर चंचल कङ्कपक्षों से युक्त तीक्ष्ण बाण गाड़ दिया ॥ ६७ ॥ एक लम्बे बाण से उसने उसके छत्र तथा विजय पताका को छेदा और दूसरे बाण के द्वारा मुकुट के अग्रभाग से ऊपर की ओर उठने वाली किरणों से युक्त