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वर्धमानचरितम्
शार्दूलविक्रिडितम् दृष्टवा तन्निजहस्तसंस्थितमुरुज्वालोल्लसन्नेमिकं निधूमज्वलनं यथा हयगलं तं विष्णुरुचे पुनः। सप्तिग्रीव ममाशु पादपतने शिष्यत्वमालम्बय श्रेयोऽर्थमुनिपुङ्गवस्य तव नो वीक्षेऽन्यथा जीवितम् ॥९६ ऊचे तं तु विहस्य नीरधिमना जिष्णुं हयग्रीवकश्चक्रेण त्वमनेन गर्वितमतिर्नालातचक्रेण वा। भूतो नालयमायुधैरविवरं पूर्ण न मे कि महनीचा वाथ न कुर्वते खलु खलं लब्ध्वा धृति किं जनाः ॥९७ तिष्ठाने किमु भाषितेन बहुना त्वं याहि मृत्योर्मुखं ह्यन्यस्त्रीसुरताभिलाषजफलं भुझ्वाद्य मूंढाहवे। किं वा ये परदारसंगमसुखव्यासक्तचित्तास्तु ते जोवन्ति क्षितिपे प्रसाधितरिपौ सत्येव कालं चिरम् ॥९८
शरीर प्रसिद्ध शत्रुओं के शिरश्छेद से निकले हुए खून से लाल है तथा जिसके प्रताप से तुम समस्त पृथिवीतल पर पूर्णमनोरथ हुए थे। वह चक्र अब पूर्व पुण्य के प्रभाव से मेरे हाथ में आ चुका है। उसका फल यदि तुम्हें इस भव में अभीष्ट है तो हे सुभट ! निश्चल रूपसे मेरे चरणयुगल को पूज्य मानो अथवा धैर्यपूर्वक इस चक्र के आगे खड़े हो जाओ ॥ ९५ ।। बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से जिसकी चक्रधारा देदीप्यमान हो रही थी और जो निधूम अग्नि के समान जान पड़ता था उस चक्ररत्न को अपने हाथ में स्थित देख त्रिपृष्ट ने अश्वग्रीव से फिर कहा कि हे अश्वग्रीव या तो पैर पड़ने में शीघ्र ही मेरी शिष्यता का आलम्बन लो या कल्याण प्राप्ति के लिये मुनिराज की शिष्यता का सहारा लो । 'मैं' अन्य प्रकार से तुम्हारा जीवन नहीं देखता हूँ॥९६ ॥ समुद्र के समान गंभीर अश्वग्रीव ने हंस कर विजयो त्रिपृष्ट से कहा कि क्या तूं अलातचक्र के समान इस चक्र से वित बुद्धि नहीं हो रहा है ? और क्या मेरा विशाल घर शस्त्रों के द्वारा निश्छिद्र रूप से नहीं भरा है ? अथवा निश्चय से नीच मनुष्य क्या खली को पाकर संतोष नहीं करते ? अर्थात् अवश्य करते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार नीच मनुष्य खली का टुकड़ा पाकर संतुष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार तूं अलात चक्र के समान निःसार इस चक्र को पाकर गर्वित हो रहा है। तुझे यह निःसार चक्र बहुत बड़ा शस्त्र जान पड़ता है जब कि मेरा विशाल घर शस्त्रों से ऐसा परिपूर्ण है कि उसमें तिल रखने को छिद्र भी खाली नहीं है ॥ ९७ ।। यह सुन त्रिपृष्ट ने कहा कि मूर्ख ! आगे खड़ा हो, बहुत कहने से क्या लाभ है ? तूं मृत्यु के मुख को प्राप्त हो, आज युद्ध में परस्त्री के संभोग की अभिलाषा से उत्पन्न होने वाला फल भोग। जिनका चित्त परस्त्रियों के समागम रूप सख में अत्यन्त आसक्त है वे क्या शत्रुओं को वश करने वाले राजा के विद्यमान रहते हुए चिर काल तक जीवित रहते हैं ? ॥ ९८ ॥ इसके उत्तर में अश्वग्रीव ने कहा कि जो मेरी जूंठन है तथा चरण युगल की धूली के १. रविवरै ब० । ३. किंतनाम् म० । ३. भुक्त्वाद्य म० ब० । ४. मूढान्तरे म० । ६. के ब० ।