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वर्धमानचरितम्
सुदुनिवारान्विविधान्विधिज्ञो विद्यामयान्वज्रफलान्समन्तात् । शराननेकान्विससर्जचक्री वक्रीकृतोत्तङ्गधनुर्गुणेन ॥८४ अथान्तराले पुरुषोत्तमेन ते खण्डिताः शाङ्गधनुर्विमुक्तैः शराः शरैः पुष्पमया बभूवुर्गुणाय भङ्गोऽपि सतः परेषाम् ॥८५ एकीकृतक्ष्मातलवायुमार्गा विनिर्ममे चक्रभृता तमिस्रा। चिच्छेद तां कौस्तुभरत्नदीप्तिर्विष्णोजितोष्णांशुकठोररश्मिः ॥८६ समन्ततो दृष्टिविषाग्निरेखाकल्माषिताशानसृजत्रौँ सर्पान् । पक्षानिलोन्मूलितपादपेन निराकरोत्तानगरुडेन कृष्णः ॥८७ गजन्मृगेन्द्रः स्थिरतुङ्गशृङ्गः शैलैरसौ व्योम रुरोध कृत्स्नम् । बिभेद वेगेन हरिः क्रुधा तान्वज्रण वज्रायुधसन्निभश्रीः ॥८८ अनिन्धनेन ज्वलनेन धीरस्तस्तार स व्योम धरातलं च। निर्वापयामास तमाशु विष्णुविद्यामयाम्भोदविसृष्टतोयैः ॥८९ उल्कासहस्रज्वलितान्तरिक्षां सुदुनिराममुचत्स शक्तिम् । उरःस्थले सा पुरुषोत्तमस्य स्फुरत्करा हारलता बभूव ॥९०
नहीं सो ठीक ही है क्योंकि अधिक गुणवान् में किसका पक्षपात नहीं होता? ॥८३॥ विधि को जानने वाले चक्रवर्ती-अश्वग्रीव ने कुटिल किये हुए उन्नत धनुष की डोरी से सब ओर ऐसे अनेक बाण छोड़े जिनका कि रोकना अत्यन्त कठिन था, जो विद्यामय थे और जिनका अग्रभाग वज्र का था ॥८४।। तदनन्तर पुरुषोत्तम त्रिपृष्ट ने अपने शाङ्गनामक धनुष से छोड़े हुए बाणों के द्वारा उन बाणों को बीच में ही खण्डित कर दिया जिससे वे फूलों से निर्मित के समान निःसार हो गये सो ठीक ही है क्योंकि दूसरों का भङ्ग भी सज्जन के लिये गुण का कारण ही होता है। भावार्थ-सज्जन का कोई पराभव करे तो वह पराभव भी उसके गण के लिये ही होता है।। ८५ ॥ चक्रवर्ती ने विद्याबल से ऐसी रात्रि का निर्माण कर दिया जिसमें पृथ्वोतल और आकाश एक हो गये थे परन्तु सूर्य की कठोर किरणों को जीतनेवाले विष्णु के कौस्तुभमणि की दीप्ति ने उसे नष्ट कर दिया ॥८६॥ अश्वनीव ने विद्याबल से चारों ओर ऐसे सर्पो की सृष्टि कर दी जिन्होंने कि दृष्टिविषरूपी अग्नि की रेखाओं से दिशाओं को मलिन कर दिया था परन्तु विपृष्ट ने पङ्खों की वायु से वृक्षों को उखाड़नेवाले गरुड के द्वारा उन सर्यों को दूर हटा दिया ॥८७।। अश्वग्रीव ने जिनपर सिंह गरज रहे थे तथा जिनकी ऊँची चोटियाँ स्थिर थीं ऐसे पर्वतों से समस्त आकाश को व्याप्त कर दिया परन्त इन्द्र के समान लक्ष्मी के धारक त्रिपष्ट ने क्रोध से वज्र के द्वारा उन्हें शीघ्र ही चर-चर कर डाला ॥८८॥ धीर-वीर अश्वग्रीव ने ईन्धन से रहित अग्नि के द्वारा आकाश और पृथ्वीतल को आच्छादित कर दिया परन्तु विष्णु त्रिपृष्ट ने विद्यामय मेघ के द्वारा छोड़े हुए जल से उस अग्नि को शीघ्र ही बुझा दिया ॥८९॥ उसने हजारों उल्काओं के द्वारा आकाश को प्रज्वलित करने वाली अत्यन्त दुर्निवार शक्ति छोड़ी परन्तु वह त्रिपृष्ट के वक्षःस्थल पर देदीप्यमान किरणों से युक्त हार लता
१. चकीकृतो म० । २. जितोष्मांश म० । ३. रेषा म० । ४. विसृजन् स म०।