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नवमः सर्गः
प्रहर्षिणी
इत्येवं विफलितसर्वशास्त्रसारो दुर्वारस्तुरगगलः करेण चक्रम् । आदाय ज्वलनशिखापरीतधारं स्मेरास्यो हरिमिति निर्भयं बभाषे ॥९१
पुष्पिताग्रा
विफलयति मनोरथांस्तवेदं कुलिशधरोऽपि सहो न पातुमस्मात् । निजमतिमथवा मम प्रणामे कुरु परमात्मनि वा परत्र हेतौ ॥९२ शार्दूलविक्रीडितम्
भीरोर्भीतिकरं त्वदीयवचनं नैवोन्नतानामिदं
वन्येभध्वनितं परं मृगशिशोः संत्रासकं किं हरेः ।
चक्रं तेन कुलालचक्रसदृशं मन्येत कः सत्त्ववान् शौयं वाचि न कर्मणि स्थितमिति प्रत्याह तं केशवः ॥९३
वसन्ततिलकम्
श्रुत्वा तदीय वचनं सभयावनीशै रालोक्यमानममुचत्तरसा स चक्रम् । तत्प्राय दक्षिणकरं मृगराजशत्रो राज्ञापयेति निगदन्मुहु रुद्यदचः ॥९४
स्रग्धरा
एतत्ते चक्रमुग्रं प्रथितरिपुशिरश्छेवरक्तारुणाङ्ग विद्वन्यस्य प्रतापादखिलमहितले पूर्णकामो ह्यभूस्वम् । तत्प्राप्तं मे कराग्रं कृतसुकृतवशात्तत्फलं चेह मत्वा
पूज्यं ते मेऽङ्घ्रियुग्मं भेटनिभृततया तिष्ठ वाग्रेऽस्य धैर्यात् ॥९५
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बन गई ॥९०॥ इस प्रकार जिसके समस्त श्रेष्ठ शस्त्र निष्फल कर दिये गये थे ऐसे उस दुर्निवार अश्वग्रीव ने अग्नि ज्वालाओं से व्याप्त धारा वाले चक्ररत्न को हाथ से उठाया और स्मेर मुख हो निर्भय त्रिपृष्ट से इस प्रकार कहा ॥ ९१ ॥ | यह चक्ररत्न तुम्हारे मनोरथों को अभी निष्फल करता है, इससे रक्षा करने के लिये इन्द्र भी समर्थ नहीं है इस लिये तुम अपनी बुद्धि या तो मेरे लिये प्रणाम करने में लगाओ या परभव के लिये परमात्मा में लगाओ ।। ९२ ।। त्रिपृष्ठ ने यह कहते हुए उत्तर दिया कि तुम्हारा यह वचन कायर मनुष्य के लिये भय करने वाला है उन्नत मनुष्यों के लिये नहीं । जंगली हाथी की गर्जना मृग के बच्चे को तो भयभीत कर सकती है पर क्या सिंह को भी भयभीत करती है ? तुम्हारा यह चक्र कुम्हार के चक्र के समान है उसके द्वारा कौन बलवान् माना जाता है ? शूरता वचनों में नहीं किन्तु कार्य में स्थित है ॥ ९३ ॥ त्रिपृष्ट के वचन सुन, अश्वग्रीव ने भयभीत राजाओं के द्वारा देखे जाने वाले उस चक्र को शीघ्र ही छोड़ दिया परन्तु जिससे किरणें निकल रही थीं ऐसा वह चक्र 'आज्ञा करो आज्ञा करो' इस प्रकार बार-बार कहता हुआ त्रिपृष्ट के दाहिने हाथ में जा पहुँचा ॥९४॥ त्रिपृष्ट ने कहा कि हे विद्वन् ! यह तुम्हारा वही भयंकर चक्र है जिसका १. भटनिवहतया म० ।