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वर्धमानचरितम् दशमः सर्गः
वंशस्थम् अथाभिषिक्तो विजयेन केशवः समं नरेन्द्रः सकलैश्च खेचरैः । पुरा समभ्यर्च जिनं सपर्यया स चक्रमानर्च यथोक्तया पुनः ॥१ प्रणामतुष्टैर्गुरुभिः ससंभ्रमैरुदीरिताशीरभिपूज्य राजकम् । पुरस्सरीभूतरथाङ्गमङ्गलो हरिः प्रतस्थे दशदिग्जिगीषया ॥२ दिशं महेन्द्रस्य महेन्द्रसन्निभः पुरा वशीकृत्य निजेन तेजसा । रराज देवं विनमय्य माग, परार्द्धतद्दत्तविचित्रभूषणैः ॥३ ततो वरादि तनुमच्युतो नतं सुरं प्रभासं च परानपि क्रमात् । उपागतान्द्वीपपतीनुपायनैरतिष्ठिपत्तानिज एव धामनि ॥४ स भारताद्धं परिसम्मितैदिनैविधाय सर्व करदं यथेच्छया। ततः पुरं पोदनमुच्छ्रितध्वजं विवेश पौरैः परिवार्य पूजितः ॥५ हरेरुदीचीमवसन्ननायकां प्रसादतः श्रेणिमवाप्य वाञ्छिताम् । अभूत्कृतार्थो रथनूपुरेश्वरो न वर्धते कः पुरुषोत्तमाश्रितः ॥६ अयं पतिर्वो विजयार्द्धवासिनां वहध्वमस्यैव निदेशमा दरात् । . इतीरयित्वा सह तेन खेचरान्मुमोच सम्मान्य यथाक्रम विभुः ॥७
दशम सर्ग अथानन्तर समस्त राजाओं और विद्याधरों ने विजय बलभद्र के साथ जिसका राज्याभिषेक किया था ऐसे नारायण त्रिपृष्ट ने पहले जिनेन्द्र भगवान् की पूजा कर पश्चात् यथोक्त यथोक्त विधि से चक्ररत्न की पूजा की ॥१॥ तदनन्तर प्रणाम से संतुष्ट और हर्ष से परिपूर्ण गुरुजनों ने जिसे आशीर्वाद दिया था तथा जिसके आगे महामाङ्गलिक चक्ररत्न चल रहा था ऐसे त्रिपृष्ट ने दशों दिशाओं को जीतने की इच्छा से प्रस्थान किया ॥२॥ महेन्द्र की समानता रखने वाला त्रिपृष्ट, सर्वप्रथम अपने तेज से पूर्व दिशा को वश कर तथा मागध देव को नम्रीभूत कर उसके द्वारा दिये हुए नाना प्रकार के श्रेष्ठ आभूषणों से सुशोभित हुआ ॥३॥ तत्पश्चात् नारायण ने विनत होकर आये हुए वरतनु और प्रभास नामक देव को तथा उपहार लेकर क्रम से आये हुए अन्य द्वीपों के राजाओं को उनके अपने ही स्थान पर प्रतिष्ठित किया। भावार्थ-जो जहाँ का राजा था उसे वहीं का राजा रहने दिया ॥ ४ ॥ उसने सीमित दिनों के द्वारा सम्पूर्ण भरतार्थ क्षेत्र को अर्थात् विजयार्ध पर्वत के दक्षिणदिग्वर्ती अर्धभरत क्षेत्र को स्वेच्छा से करदाता बनाया पश्चात् नागरिक जनों ने घेर कर जिसकी पूजा की थी ऐसे त्रिपृष्ट फहराती हुई पताकाओं से सुशोभित पोदनपुर में प्रवेश किया ॥ ५ ॥ रथनूपुर नगर का राजा ज्वलनजटी हरि के प्रसाद से नायकविहीन, चिरकाङ्कित उत्तर श्रेणी को प्राप्त कर कृतकृत्य हो गया सो ठीक ही है क्योंकि पुरुषोत्तम-नारायण अथवा उत्तम पुरुष का आश्रय करने वाला कौन पुरुष वृद्धि को प्राप्त नहीं होता है ॥६॥ विजयाध पर्वत पर रहने १. पूरितः म०।