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वर्धमानचरितम्
बभार हारो गुणवत्सु केवलं सुवृत्तमुक्तात्मकतामनारतम् । सदा परेषां मणिमेखलागुणः सुजातरूपेषु कलत्रमगृहीत् ॥२५ प्रियावियोगव्यथया कृशीकृतो निशासु कोको भुवि कामुकेष्वभूत् । ननाम मध्यः कुचभारपीडितो नितम्बिनीनां न च दुर्बलः पर ॥२६ इति प्रजासु प्रतिवासरं परां स्थिति वितन्वन्विगतोरुसंभ्रमः । ररक्ष रत्नाकरवारिमेखलां वसुन्धरामेकपुरोमिवाच्युतः ॥२७ असूत कालेन यथाक्रमं सुतौ स्वयंप्रभा कन्यकया सहैकया। सुकोशदण्डौ सममायतश्रिया घरेव तस्य प्रमदाय वल्लभा ॥२८ परंतपः श्रीविजयोऽग्रज सुतस्ततः कनीयान्विजयो यशोधन ।
प्रभोत्तरज्योतिरभिख्यया सती सुता च रेजे मृगशावलोचना ॥२९ मकरन्द का प्रेमी था तो भौंरा ही था वहाँ का कोई मनुष्य सुमनोऽनुवर्ती-विद्वज्जनों का अनुसरण करनेवालों में मधु प्रिय-मदिरा का प्रेमी नहीं था। इसी प्रकार भोगी-फन से युक्त जीवों में यदि कोई विद्वज्जनों के द्वारा दुरासद-कठिनाई से प्राप्त करने के योग्य था तो स्फुरद्विजिह्वात्मता-लपलपाती हुई दो जिह्वाओ के कारण सांप ही दुरासद था, किन्तु वहाँ भोगो-भोग विलास से सम्पन्न जीवों में विद्वज्जनों द्वारा स्फुरद्विजिह्वान्मता-प्रकट दुर्जनता के कारण कोई अन्य मनुष्य दुरासद नहीं था। वहाँ सब सज्जन थे और सब को सब से मिलना सरल था ॥२४॥ गुणवान् वस्तुओं में यदि कोई निरन्तर सूवृत्तमुक्तात्मकता-उत्तम गोल मोतियों से तन्मयता को धारण करता था तो हार ही करता था, परन्तु वहां कोई मनुष्य सुवृत्तमुक्तात्मकता-सदाचार हीनता को धारण नहीं करता था । इसी प्रकार सुजातरूप-सुन्दर पदार्थों में यदि कोई दूसरों के कलत्रनितम्ब को ग्रहण करता था तो मणिमय मेखला का सूत्र ही करता था, वहां का कोई मनुष्य दूसरों की कलत्र-स्त्री को ग्रहण नहीं करता था ।२५।। पृथिवी पर कामीजनो में रात्रि के समय यदि कोई प्रिया के वियोगजनित पीड़ा से कृश किया जाता था तो चकवा ही किया जाता था, वहाँ कोई अन्य मनुष्य रात्रि के समय स्त्री के वियोग जनित दुःख से कृश नहीं था । इसी प्रकार यदि कोई नत होता था-झुकता था तो स्तनों के भार से पीडित हुआ स्त्रियों का मध्य भाग ही नत होता था, वहाँ कोई अन्य दुर्बल मनुष्य नत नहीं होता था ॥२६॥
इस प्रकार जो प्रजा में प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट स्थिति को विस्तत करता था तथा जिसकी व्यग्रता नष्ट हो चुकी थी ऐसा त्रिपृष्ठ नारायण समुद्रान्त पृथिवी की एक नगरी के समान रक्षा करता था ।।२७।। तदनन्तर जिस प्रकार पृथिवी ने उसके हर्ष के लिए विस्तृत लक्ष्मी के साथ सुकोश
-उत्तम खजाना और दण्ड-सैन्यबल को उत्पन्न किया था उसी प्रकार उसकी प्रियस्त्री स्वयंप्रभा ने उसके हर्ष के लिये समयानुसार क्रम से एक कन्या के साथ दो पुत्रों को उत्पन्न किया ॥२८॥ बड़े पुत्र का नाम श्रीविजय था जो शत्रुओं को संतप्त करने वाला था, और उससे छोटे पुत्र का नाम विजय था जो कीर्ति रूपी धन से सम्पन्न था । पुत्री का नाम ज्योतिःप्रभा था। मृग के बच्चे के समान नेत्रों को धारण करनेवाली ज्योतिःप्रभा अत्यधिक सुशोभित होती थी ॥२९।। वे दोनों १. मायतिश्रिया ब०