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नवमः सर्गः
रक्षन् शरेभ्यः पतिमात्मगात्रैः कश्चित्समन्ताद समानसत्त्वः । भेस्त्रीचकारात्मतनुं क्षणेन सुनिश्चितः किं न करोति वीरेः ॥४५ कुलाभिमानं विपुलां च लज्जां स्वामिप्रसादं निजपौरुषं च । मत्त्वा व्रणैराचितमूर्तयोऽपि न पेतुरन्योऽन्यमवेक्ष्य शूराः ॥४६ दन्तैश्च मात्रैः करिणां करैश्च छिन्नैरनेकैः पतितैर्ध्वजैश्च । रथैश्च भग्नाक्षधुरैनिकीणं बभूव दुर्गं समराजिरं तत् ॥४७ प्रपीय रक्तासवमाशु मत्ता नरान्त्रमालाकुलकण्ठदेशाः । परं कबन्धैः सह यातुधानाः शवान्वहन्तो ननृतुर्यथेष्टम् ॥४८ नदच्छिवास्यारणि लब्धजन्मा ददाह वीराज्शरपञ्जरस्थान् । मृतान्समस्तान्कृपयेव वह्निः को वा न गृह्णाति कृतावदानान् ॥४९ तयोर्ध्वजिन्योरतिदर्पभाजामिभाश्वपादातरथोत्कराणाम् । अन्योऽन्यमुद्दिश्य रणः समन्तादासीत्कृतान्तोदरपूरणाय ॥५० मन्त्री हरिश्मश्रुरथैकवीरो बलस्य नेता रथमण्डलस्थः । धन्वी प्रतिद्वन्द्विबलं वियच्च संछादयामास समं शरौघैः ॥५१ लुलाव मौर्वीभिरमा शिरांसि भल्लैभंटानां करिणां घटाभिः । महारथव्यूहविशेषबन्धं समं बिभेदामघटं यथाम्बु ॥५२
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अपने शरीर को भस्मा - चर्मानिर्मिभा बड़ी कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि सुनिश्चित वीर क्या नहीं करता है ? ।। ४५ ।। शूर वीर, यद्यपि घावों से व्याप्त शरीर थे तो भी वे कुल का अभिमान, विशाल लज्जा, स्वामी का प्रसाद और अपने पौरुष का विचार कर परस्पर एक दूसरे को देख नीचे नहीं गिरे थे ॥ ४६ ॥ वह युद्ध का मैदान कट कर पड़े हुए हाथियों के दाँतों, शरीरों, सूंड़ों, अनेक ध्वजाओं और जिनके भौंरे तथा धुरा टूट गये हैं ऐसे रथों से व्याप्त होकर दुर्गम हो गया था—उसमें चलना
for हो गया था ।। ४७ ।। खूनरूपी मदिरा को पीकर जो शीघ्र ही मत्त हो गये थे, जिनके कण्ठदेश मनुष्यों की आंतोंरूपी मालाओं से युक्त थे तथा जो इच्छानुसार मुर्दों को लिये हुए थे ऐसे राक्षस कबन्धों - शिररहित धड़ों के साथ नाच रहे थे ॥ ४८ ॥ शब्द करनेवाले शृगालों के मुखरूपी बाँसों से उत्पत्र अग्नि ने दया से ही मानों वाणरूपी पिंजड़ों में स्थित समस्त मृतकों को जला दिया था सो ठीक ही है क्योंकि साहस का काम करनेवाले मनुष्यों को कौन नहीं ग्रहण करता है ? ।। ४९ ।। उन दोनों सेनाओं के बहुत भारी गर्वीले हाथी-घोड़े, पैदल सैनिक और रथों के समूह का परस्पर एक दूसरे को लक्ष्य कर जो चारों ओर युद्ध हुआ था वह यमराज का उदर भरने के लिये हुआ था । भावार्थ - उस युद्ध में अनेक जीवों का विघात हुआ था || ५० ॥ तदनन्तर अद्वितीय वीर, सेना नायक और रथ के ऊपर स्थित, धनुषधारी हरिश्मश्रु नामक मन्त्री ने वाणों के समूह से एक ही साथ शत्रु की सेना और आकाश को आच्छादित कर दिया ।। ५१ ।। उसने भालों के द्वारा धनुष की डोरियों के साथ योद्धाओं के शिर छेद दिये और जिस प्रकार पानी कच्चे घड़े को भेद देता है उसी प्रकार हाथियों की घटाओं के साथ बड़े-बड़े रथसमूह के विशेष बन्ध को भेद दिया
१. शूरः म० । २. भस्मीचकारात्म म० । ३. निपेतु म० ।