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वर्धमानचरितम्
शार्दूलविक्रीडितम् आमन्द्रध्वनिपाञ्चजन्यममलं शङ्ख गदा कौमुदी दिव्यामोघमुखी च शक्तिरनघं शाङ्गं धनुर्नन्दकः । खङ्गः कौस्तुभरत्नमंशुजटिलं यक्षाधिपै रक्षितैरेभिः श्रीजयसम्पदा पदमभूदप्रेसरैरच्युतः ॥८७
इत्यसगकृते श्रीवर्धमानचरिते दिव्यायुधागमनो नाम अष्टमः सर्गः ।
नवमः सर्गः
उपजातिः अर्थक्षत मारजसा परीतां चक्रीवदङ्गहधूसरेण । पताकिनीमश्वगलस्य विष्णुः स्वतेजसा तां मलिनीकृतां वा ॥१ गजा जगणुः पटहाः प्रणदुर्बलद्वयस्यापि जिहेषुरश्वाः ।।
निवृत्य यातेत्यभिधाय भीतान्वीरान्रणायेव तदाह्वयन्तः ॥२ उत्पन्न करने वालो गदा लेकर अपराजित मन्त्र से अजेय विजय की, जयप्राप्ति के लिये स्वयं सेवा करने लगी । भावार्थ-विद्या देवता ने विजय के लिये उपर्युक्त चार रत्न भेंट किये ॥८६।। गम्भीर शब्द से युक्त पाञ्चजन्य नाम का निर्मल शङ्ख, कौमुदी नाम की गदा, अमोघमुखी नाम की दिव्य शक्ति, शाङ्गनामका निर्दोष धनुष, नन्दक नाम का खङ्ग तथा किरणों से व्याप्त कौस्तुभमणि, यक्षराज के द्वारा रक्षित और आगे आगे चलनेवाले इन रत्नों से नारायण त्रिपृष्ठ लक्ष्मी तथा विजय रूप सम्पदाओ का आश्रय हुआ था ।।८७।। इस प्रकार असग कविकृत श्री वर्धमानचरित में दिव्य शस्त्रों की प्राप्ति का
वर्णन करने वाला आठवाँ सर्ग पूर्ण हुआ।
नौवां सर्ग अथानन्तर विष्णु-त्रिपृष्ट नारायण ने गधे के रोमों के समान मटमैली पृथिवी की धूलि से घिरी हुई अश्वग्रीव की उस सेना को ऐसा देखा जैसे वह अपने तेज के द्वारा ही मलिन कर दी गई हो ॥१॥ उस समय दोनों सेनाओं के हाथी गरज रहे थे, नगाड़े जोरदार शब्द कर रहे थे और घोड़े हिनहिना रहे थे उससे ऐसा जान पड़ता था 'मानों लौटकर चले जाओ' यह कह कर जो वीर भयभीत हो गये थे उन्हें वे १. धीरान् म०।