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वर्धमानचरितम् भवतामनुभावतो हि नः सकला संपदभूत्समीहिता। ऋतुभिस्तरवो विना स्वयं ननु पौष्पों श्रियमुद्वहन्ति किम् ॥२ निजमुग्धतया समन्वितान्विधुराद्रक्षति नः समन्ततः । पृथुकान् जननीव वो मतिः कुशला कृत्यविधौ च वत्सला ॥३ गुणिनां भवति प्रसङ्गतो गुणहीनोऽपि गुणी धरातले। सुरभीकुरुतेऽथ कर्परं सलिलं पाटलपुष्पवासितम् ॥४ अविचिन्तितमप्ययत्नतः स्वयमुत्पादयति प्रयोजनम् । विधिरेकपदे निरङ्कुशः कुशलं वाऽकुशलं च देहिनाम् ॥५ बलवान्हयकन्धरः परं सहसा चक्रधरः समुत्थितः। अपरैः सह खेचरेश्वरैर्वदतास्मान्प्रति कोऽस्य सन्नयः ॥६ इति वाक्यमुदीर्य भूपतौ विरते दर्शितभूरिकारणम् । सचिवैः परिवीक्षितो मुहुर्वचनं सुश्रुत इत्यवोचत ॥७ अवबोधविधौ विशुद्धतां वयमाप्ता भवतः प्रसादतः। अपि नाम जडात्मकाः सदा भुवि पद्मा इव तिग्मदीधितेः॥८ समुपेत्य निसर्गतः शुची ननु यत्किञ्चिदपि प्रकाशते । तुहिनद्यतिबिम्बसंश्रितो मलिनोऽपि प्रतिभासते मृगः ॥९
प्रकार के वचन कहे ॥ १॥ निश्चय ही आप लोगों के प्रभाव से ही हमारी यह सम्पूर्ण मनोवाञ्छित सम्पत्ति हुई है; क्योंकि ऋतुओं के बिना क्या वृक्ष स्वयं ही पुष्पों की शोभा को धारण करते हैं ? अर्थात् नहीं धारण करते ॥२॥ जिस प्रकार कार्य करने में कुशल तथा स्नेह से परिपूर्ण माता, अपनी अज्ञानता से युक्त बालकों को सब ओर दुःख से रक्षा करती है उसीप्रकार कार्य करने में कुशल और स्नेह से परिपूर्ण आप लोगों की बुद्धि, अपनी अज्ञानता से युक्त हमलोगों की सब ओर दुःख से रक्षा करती है॥३॥पथ्वीतल पर गणी मनुष्यों की संगति से निर्गण मनुष्य भी गणी हो जाता है सो ठीक ही है, क्योंकि गुलाब के फूल से सुवासित जल मिट्टी के पात्र को भी सुगन्धित कर देता है ॥ ४ ॥ स्वच्छन्द दैव, जिसका विचार भी नहीं किया गया ऐसे प्राणियों के अच्छे या बुरे कार्य को स्वयं बिना किसी प्रयत्न के एक साथ उत्पन्न कर देता है ॥ ५॥ अत्यन्त बलवान् अश्वग्रीव चक्रवर्ती, अन्य विद्याधर राजाओं के साथ हमलोगों पर अचानक आ चढ़ा है, बतलाइये क्या यह उसका समीचीन नय है ? ॥ ६॥ जिसमें अनेक कारण दिखलाये गये हैं ऐसे वचन कहकर जब राजा प्रजापति चुप हो गए तब मन्त्रियों के द्वारा बार-बार देखा गया सुश्रुत मन्त्री इस प्रकार के वचन बोला ॥७॥ जिस प्रकार पृथ्वी में जलात्मक-जल के आश्रय रहनेवाले कमल, सूर्य के प्रसाद से विकास को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार हम लोग भी जडात्मक-अज्ञानभय होनेपर भी आपके प्रसाद से मन्त्रज्ञान के विषय में विशद्धता को प्राप्त हुए हैं॥ ८॥ स्वभाव से पवित्र पुरुषों को प्राप्त कर निश्चय ही साधारण पुरुष भी प्रकाशित होने लगता है सो ठीक ही है; क्योंकि चन्द्रमा
१. नतु म० । २. वो म० । ३. शुचिं म० ।