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वर्धमानचरितम्
उपदीकृतभूरिगोरसैर्ददृशे मद्दतसस्यधारिभिः । पथि भूमिपतिः कृषीवलैः कुरु रक्षामिति वल्गुवादिभिः ॥८० अवरोधनमेतदञ्चितं समदानां करिणामियं घटा । अग्रतुरङ्गमः प्रभोः करभोऽयं गणिकेयमुज्ज्वला ॥८१ पथि राजककोटिवेष्टितः क्षितिपोऽयं ससुतः प्रजापतिः । इति तत्कटकं सविस्मयं ददृशुर्जानपदाः समन्ततः ॥८२ ( युग्मम् ) धृत निर्झरवारिसीकर: करिभग्नागुरुगन्धवासितः । तदसेवत पार्वतो मरुत्कटकं कम्पितकेतनावलिः ॥८३ बहुभिर्गजन्तचामरैर्धृतकस्तूरिकुरङ्गकैरपि । अटवीपतयो वनान्तरे तमुपेत्यादरतः सिषेविरे ॥८४ दलिताञ्जनपुञ्जरोचिषो बलमालोक्यं भयेन नश्यतः । प्रतिभूधरमैक्षत क्षणं तिमिरौधानिव जङ्गमान्गजान् ॥८५ अवलोकनमात्रसत्फला दधतीः पीनपयोधरश्रियम् । शबरीरपि पत्रवाससो गिरिसिन्धश्च विलोक्य पिप्रिये ॥८६ दलयन्महतोऽपि भूभृतः सरिदुत्तुङ्गतटानि पातयन् । विपिनानि परं प्रकाशयन्सरसां कर्दमयञ्ज लश्रियम् ॥८७ रथचक्रचयस्य चीत्कृतैर्व्यथयन्कर्णपुटानि देहिनाम् । ककुभां विवराणि पूरयन्रजसा छादितवायुवर्त्मना ॥८८
गेंद के समान बिलकुल नीचे गिरा दिया सो ठीक ही है क्योंकि खोटी शिक्षा आपत्तियों का ही स्थान होती है ।। ७९ ।। जिन्होंने बहुत भारी गोरस भेंट में दिया था, जो कूटकर साफ किये हुए धान्य की साथ में लिये थे तथा जो मधुर शब्द बोल रहे थे ऐसे किसानों ने 'रक्षा कीजिये' यह कहते हुए मार्ग में राजा के दर्शन किये थे ॥ ८० ॥ यह प्रभु का सुन्दर अन्तःपुर है, यह मदोन्मत्त हाथियों की घटा है, यह तेज घोड़ा है, यह ऊँट है, यह देदीप्यमान गणिका है, और यह मार्ग में राजाओं की पंक्ति से घिरा हुआ पुत्र सहित राजा प्रजापति है - इस प्रकार देशवासी लोगों ने सब ओर से उनके कटक को आश्चर्य के साथ देखा था ।। ८१-८२ ।। जिसने झरनों के जलकणों को धारण किया है, जो हाथियों के द्वारा तोड़े हुए अगुरु चन्दन की गन्ध से सुवासित है तथा जिसने पताकाओं के समूह को कम्पित किया है ऐसे पहाड़ी वायु उस कटक की सेवा कर रहा था ।। ८३ ।। अटवियों के राजाओं ने वन के मध्य आकर अत्यधिक हाथी दाँत, चमर, तथा पकड़े हुए कस्तूरी मृगों के द्वारा आदरपूर्वक उसकी सेवा की थी || ८४ ॥ मसले हुए अञ्जनपुञ्ज के समान जिनकी कान्ति थी तथा सेना को देखकर जो भय से भाग रहे थे ऐसे हाथियों को उसने प्रत्येक पर्वत पर क्षणभर के लिये ऐसा देखा मानों चलते फिरते अन्धकार के समूह ही हों ।। ८५ ।। देखना मात्र ही जिनका उत्तम फल था, जो स्थूल स्तनों की शोभा को ( पक्ष में बहुत भारी जल को धारण करनेवाली शोभा को धारण कर रही थीं तथा पत्र ही जिनके वस्त्र थे ( पक्ष में पत्तों से आच्छादित थीं ) ऐसी शवरियों और पहाड़ी नदियों को देख कर वह प्रसन्न हुआ था ।। ८६ ।। जो बड़े - बड़े पर्वतों को भी चूर-चूर कर रहा था, नदियों के ऊँचे तटों को गिरा रहा था, वनों को अत्यधिक प्रकाश युक्त