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अष्टमः सर्गः
न्यायवानभिनिवेशमात्मनो नानुरूपमकरोद्भवानमुम् । प्रार्थिता ननु पुरा स्वयंप्रभा चक्रिणा स्वयमनन्यचेतसा ॥११ नूनमेतदधुनैव तावकं श्रोत्रगोचरमुपागतं वचः । चित्तवृत्तिमवयन्प्रभोः पुरा कः करोति विनयातिलङ्घनम् ॥१२ एवमुक्तमथ चक्रवर्तिना तेन सा स्थितिमजानता मम । स्वीकृता ननु परोक्षबन्धुना कोऽत्र दोष इति वीतमत्सरम् ॥१३ वल्लभं प्रणयिनामथान्तरे मन्यते ने खलु जीवितं च यः । बाह्यवस्तुषु कथं नु जायते तस्य लोभकणिकापि चेतसि ॥१४ कन्यया स्विदनया प्रयोजनं धीमतस्तव पुरैव च त्वया । प्रार्थितः किमिति नाश्वकन्धरः किं न यच्छति परां च वाञ्छिताम् ॥ १५ किं न सन्ति बहवो मनोरमा योषितः सुरविलासिनीसमाः । तस्य केवलमतिक्रमं मनः सोढुमल्पमपि नो विचक्षणम् ॥१६ चक्रपाणिमनुनीय यत्सुखं निविंशस्यनुपमं त्वमक्षयम् । तत्कुतस्तव वद स्वयंप्रभालोललोचनविलासवीक्षितैः ॥१७ यः सदा भवति निर्जितेन्द्रियस्तस्य नास्ति परिभूतिरन्यतः । जीवितं ननु तदेव सम्मतं यन्निकाररहितं मनस्विनाम् ॥१८
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स्त्री, छोटा भाई, पुत्र, गुरु, माता, पिता और भाई को कभी दूषित नहीं करते- इनके साथ वैर नहीं करते ।। १० ।। न्यायवान् होकर भी आपने वह कार्य अपने आपके अनुरूप नहीं किया है । निश्चय ही अनन्यचित्त चक्रवर्ती ने स्वयंप्रभा की पहले ही याचना की थी ।। ११ ।। जान पड़ता है यह वचन अभी हाल तुम्हारे श्रवण गोचर हुआ है अन्यथा पहले से स्वामी की मनोवृत्ति को जानने वाला कौन मनुष्य विनय का उल्लङ्घन करता है ? ।। १२ ।। आपके द्वारा स्वयंप्रभा के स्वीकृत किये जाने बाद भी चक्रवर्ती ने यही कहा है कि वह तो मेरा परोक्ष बन्धु है मेरी स्थिति को न जानते हुए उसने उसे स्वीकृत किया है, इसमें क्या दोष है ? इस तरह चक्रवर्ती का कहना मात्सर्य से रहित है ॥ १३ ॥ जो स्नेहीजनों के बीच अपने जीवन को भी प्रिय नहीं मानता है अर्थात् स्नेहीजनों की भलाई के लिये अपना जीवन भी देने के लिये तत्पर है उसके चित्त में बाह्यवस्तु विषयक लोभ की कणिका भी कैसे उत्पन्न हो सकती है ? ॥ १४ ॥ अथवा आप बुद्ध को इस कन्या से ही प्रयोजन था तो आपने पहले ही अश्वग्रीव से इसकी याचना क्यों नहीं की ? प्रार्थना करने पर क्या वह आपको यह उत्कृष्ट मनचाही कन्या नहीं देता ? ॥ १५ ॥ क्या उसके पास देवाङ्गनाओं के समान बहुत-सी सुन्दर स्त्रियाँ नहीं हैं ? मात्र उसका मन थोड़ा भी अतिक्रम — आज्ञोल्लङ्घन सहन करने के लिये निपुण नहीं है | १६ | आप चक्रवर्ती को प्रसन्न कर • जिस अनुपम तथा अविनाशी सुख का उपभोग कर सकते हैं वह सुख आपको स्वयंप्रभा के चञ्चल लोचनों की विभ्रमपूर्ण चितवनों से कैसे प्राप्त हो सकता है ? बताइये ॥ १७ ॥ जो पुरुष सदा पूर्ण रूप से जितेन्द्रिय होता है उसका दूसरे से तिरस्कार नहीं होता है । परमार्थ से वही जीवन तेजस्वी मनुष्यों के लिये इष्ट होता है जो कि तिरस्कार से रहित होता है ॥ १८ ॥ मनुष्य तभी तक चेतना १. हि ब० ।