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वर्षमानचरितम्
तावदेव पुरुषः सचेतनस्तावदाकलयति क्रमाक्रमम् । तावबुद्वहति मानमुन्नतं यावदिन्द्रियवशं न गच्छति ॥१९ यः कलत्रमयपाशवेष्टितः सून्नतोऽपि स विलङ्घयते परैः । वल्लरीवलयितं महातरुं नाधिरोहति किमाशु बालकः ॥ २० इन्द्रियार्थ रतिरापदां पदं कस्य वा तनुमतो न जायते । धीमतामिति वदन्निव श्रुतौ मूर्च्छति द्विरदडिण्डिमध्वनिः ॥२१ प्रीतिमल्पसुखकारणेन मा नीनशस्त्वमधिपे नभःस्पृशाम् । जायते तव कलत्रमीदृशं तादृशो न पुनरूजितः सुहृत् ॥२२ त्वद्विवाहमवगम्य दुर्जयांस्त्वां प्रहन्तुमचिरेण खेचरान् । उत्थितान्स्वयमवारमत्प्रभुस्तद्धि संर्गेतिफलं महात्मनाम् ॥२३ प्रापयात्मसचिवैः स्वयंप्रभां प्रीतये सह मया तदन्तिकम् । सर्वदान्यवनितासु निःस्पृहः स स्वयं विशति ते न कि प्रियाम् ॥२४ वाचमेवमभिधाय सँस्फुरां जोषमासितमय स्पृशं रिपोः । नोदितो निगदति स्म भारतीं विष्णुना सविनयं दृशा बलः ॥२५ अर्थशास्त्रविहितेन वर्त्मना साधितेष्टमिदमन्यदुर्वचम् | ऊ गदितुमुत्सहेत कस्त्वत्परः सदसि वाक्यमीदृशम् ॥२६
से सहित होता है, तभी तक क्रम और अक्रम को जानता है और तभी तक उत्कृष्ट मान को धारण करता है जब तक वह इन्द्रियों की अधीनता को प्राप्त नहीं होता है ||१९|| जो पुरुष स्त्रीरूपी पाश से वेष्टित है वह अत्यन्त उन्नत होने पर भी दूसरों के द्वारा विलङ्घित हो जाता हैअपमानित किया जाता है सो ठीक ही है क्योंकि लताओं से वेष्टित बड़े वृक्ष पर क्या बालक शीघ्र ही नहीं चढ़ जाता है ? ॥ २० ॥ अथवा 'इन्द्रियविषय - सम्बन्धी प्रीति किस प्राणी के लिये आपत्तियों का स्थान नहीं होती' बुद्धिमानों के कान में यह कहता हुआ ही मानों हाथी पर रखे हुए नगाड़े का शब्द वृद्धि को प्राप्त होता है ।। २१ ।। तुम अल्प सुख के कारण विद्याधरों के अधिपति की प्रीति को नष्ट मत करो क्योंकि तुम्हें ऐसी स्त्री तो फिर भी मिल सकती है परन्तु वैसा बलवान् मित्र दूसरा नहीं मिल सकता ।। २२ ।। तुम्हारे विवाह को जान कर तुम्हें शीघ्र ही मारने के लिये उठकर खड़े हुए दुर्जेय - शक्तिशाली विद्याधरों को स्वयं अश्वग्रीव ने रोका था सो ठीक ही है क्योंकि महात्माओं की संगति का वहीं फल है ।। २३ ।। प्रीति बनाये रखने के लिये तुम स्वयंप्रभा को अपने मन्त्रियों के द्वारा मेरे साथ उसके समीप पहुंचा दो । अन्य स्त्रियों में सदा निःस्पृह रहनेवाला वह अश्वग्रीव क्या स्वयं ही तुम्हारी प्रिया को तुम्हारे लिये नहीं दे देगा ? ||२४|| तदनन्तर इस प्रकार के तेज पूर्ण वचन कहकर जब शत्रु का दूत चुप बैठ रहा तब नारायण द्वारा नेत्र के संकेत से प्रेरित बलभद्र - विजय विनय सहित इस प्रकार की वाणी बोले ।। २५ ।। जो अर्थशास्त्र में बतलाये हुए मार्ग से इष्ट कार्य को सिद्ध करने वाला है, जो दूसरों के द्वारा नहीं बोला जा सकता तथा जो युक्तियों से सबल है ऐसे इस वचन को सभा में कहने के लिये तुम्हारे सिवाय १. दुर्जयं म० । २. संगतफलं म० । ३. सस्फुरं ब० ।