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सप्तमः सर्गः
सुतयोः पुरतः प्रजापतिः पथि गच्छन्नतिसौम्यभीमयोः । नयविक्रमयोरपि स्वयं प्रशमः प्रष्ठ इव व्यराजत ॥७२ ददृशे वनिताजनैः समं खचरेः स्मेरमुखः क्रमेलकः । कुरुते प्रियतामपूर्वता ननु कान्त्या रहितेऽपि वस्तुनि ॥७३ करिणां पततां विहायसा प्रतिबिम्बं बिमलोपलस्थले । अभिभूय निषादिनं नमन् रुरुधे वर्त्मनि मत्तवारणः ॥७४ पथि विस्मयनीयमण्डनं शिविकारूढमुदग्रसौविदम् । भयकौतुकमिश्रमैक्षत क्षितिपानामवरोधनं जनः ॥७५ अवगाहकटाहकर्करीकलशादीन्दधतः परिच्छदान् । अतिभारविर्वाता इव त्वरितं 'वैवधिकाः प्रतस्थिरे ॥७६ वसुनन्दकृपाणपाणि भिस्तर सोल्लङ्घितगर्त गुल्मकैः । पुरतो निजनाथवाजिनां चटुलं चारुभटैरधाव्यत ॥७७ पुरतः प्रविलोक्य दन्तिनं सहसैवाश्वतरेण पुप्लुवे । तुरगः समगावशङ्कितं ननु जातेः सदृशं हि चेष्टितम् ॥७८ नवकन्दुमिवाश्ववारकं मुहुरुत्प्लुत्य हयोऽतिदुर्मुखः । व्रणिताङ्गमपातयत्परं ननु दुःशिक्षितमापदां पदम् ॥७९
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सेना को देखता हुआ आकाश मार्ग से चल रहा था ॥ ७१ ॥ और मार्ग में अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त भयंकर पुत्रों के आगे चलते हुए राजा प्रजापति, नय और विक्रम के आगे चलनेवाले स्वयं श्रेष्ठ विनय के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ७२ ।। विद्याधरों ने अपनी स्त्रियों के साथ मन्दमुस्कान से विकसित मुख होकर ऊँट को देखा था सो ठीक ही है क्योंकि वस्तु भले ही कान्ति से रहित हो अपूर्वता-नवीनता उसमें प्रीति करती ही है ।। ७३ ।। आकाश मार्ग से जाते हुए हाथियों का जो प्रतिबिम्ब निर्मल पाषाणों के स्थल में पड़ रहा था उसकी ओर झुकता हुआ मत्त हाथी महावत की उपेक्षा कर मार्ग में ही रुक गया । भावार्थ - महावत उसे आगे ले जाना चाहता था पर वह हाथियों के प्रतिबिम्ब को सचमुच का हाथी मान उससे लड़ने के लिये मार्ग में ही रुक गया ।। ७४ ।। जो आश्चर्यजनक आभूषण पहिनी हुई थीं, जो पालकी पर आरूढ थीं और जिनके आगे बड़े-बड़े कञ्चुकी पहरेदार चल रहे थे ऐसी राजाओं की स्त्रियों को लोगों ने मार्ग में भय और कुतूहल के साथ देखा था ।। ७५ ।। जो हण्डे, कड़ाही, झारी और घड़ा आदि उपकरणों को धारण कर रहे थे ऐसे काँवर से बोझा ढोनेवाले मजदूर लोग, बहुत भारी भार से रहित हुए के समान जल्दी-जल्दी जा रहे थे ।। ७६ ।। जो वसुनन्द ( शस्त्र विशेष) और तलवारें हाथ में लिये हुए थे, तथा जिन्होंने गड्ढों और झाड़ियों को वेग से उल्लङ्घित कर दिया था ऐसे सुन्दर योधा, अपने स्वामियों घोड़ों के आगे बड़ी तेजी से दौड़ रहे थे ।। ७७ ।। आगे हाथी को देखकर खच्चर तो शीघ्र ही उछलने लगा परन्तु घोड़ा निःशङ्क भाव से चला गया सो ठीक ही है क्योंकि चेष्टा जाति के अनुरूप ही होती है ॥ ७८ ॥ दुष्ट घोड़ा ने बार-बार उछल कर घावों से 'युक्त शरीरवाले घुड़सवार को नई
१. विवधवीवधशब्दौ उभयतो बद्धशिक्ये स्कन्धबाह्ये काष्ठविशेषे वर्तते विवधं वीवधं वा वहति वैवधिकः । २. मग्रतुरङ्गमः म० ।