________________
७८
वर्धमानचरितम्
परुषाच्चमृदुः सुखावहः परमित्युक्तमुपायवेदिभिः । परितापयति क्षिति रविर्ननु निर्वापयति क्षपाकरः ॥१८ सुवशीकरणं शरीरिणां प्रियवाक्यादपरं न विद्यते । मधुरं च रुवेन यथोचितं परपुष्टोऽपि जनस्य वल्लभः ॥१९ अशितं हृदयप्रवेशकं निरपेक्षं सकलार्थसाधनम् । विजयाय न सामतः परं मतमस्त्रं दधते क्षमाभृतः॥२० कुपितस्य रिपोः प्रशान्तये प्रथम साम विधीयते बुधैः। कतकेन विना प्रसन्नता सलिलं कर्वमितं प्रयाति किम् ॥२१ वचसा परुषेण वर्धते मृदुना शाम्यति कोप उद्धतः। पवनेन यथा क्वानलो धनमुक्तेन च भूरिवारिणा ॥२२ उपशाम्यति मावेन यो नहि शस्त्रं गुरु तत्र पात्यते । अहिते वद सामसाध्यके किमुपायरितरैः प्रयोजनम् ॥२३ उपयाति न विकियां परः परिणामपि च सान्त्वसाधितः । सलिलेन तु भस्मसात्कृतो ज्वलनः प्रज्वलितुं किमीहते ॥२४ 'विकृति भजते न जातुचित्कुपितस्यापि मनो महात्मनः।
परितापयितुं न शक्यते सलिलं वारिनिधेस्तृणोल्कया ॥२५ उपाय की अपेक्षा कोमल उपाय अधिक सुखदायक होता है; क्योंकि सूर्य तो पृथ्वी को संतप्त करता है और चन्द्रमा निश्चय ही आह्लादित करता है ॥ १८ ॥ प्रियवचन के सिवाय दूसरा मनुष्यों का वशीकरण नहीं है सो ठीक ही है; क्योंकि यथायोग्य मधुर शब्द करता हुआ कोयल भी तो मनुष्यों को प्रिय होता है ॥ १९॥ राजा, विजयप्राप्ति के लिये साम के सिवाय अन्य अभीष्ट शस्त्र को धारण नहीं करते; क्योंकि साम तीक्ष्ण न होनेपर भी हृदय में प्रवेश करता है और निरपेक्ष होकर भी सबके प्रयोजन को सिद्ध करता है ॥ २०॥ विद्वान् पुरुष, क्रुद्ध शत्रु को शान्त करने के लिये सबसे पहले साम का ही प्रयोग करते हैं सो ठीक ही है; क्योंकि निर्मली के बिना क्या मलिन पानी स्वच्छता को प्राप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता ॥ २१ ॥ जिस प्रकार पवन से दावानल बढ़ता है और मेघ के द्वारा छोड़े हुए अत्यधिक जल से शान्त होता हैं उसी प्रकार कठोर वचन से उद्धत क्रोध बढ़ता है और कोमल वचन से शान्त होता है ॥ २२॥ जो कोमलता से शान्त हो जाता है उस पर बहुत भारी शस्त्र नहीं गिराया जाता है। तात्पर्य यह है कि जो शत्रु साम उपाय से सिद्ध करने के योग्य है उस पर अन्य उपायों से क्या प्रयोजन है ? ॥ २३ ॥ साम उपाय से सिद्ध किया हुआ शत्रु परिपाककाल में भी विकार को प्राप्त नहीं होता सो ठीक ही है; क्योंकि पानी से बुझाई हुई अग्नि क्या फिर से प्रज्वलित होती है ? अर्थात् नहीं ॥ २४ ॥ कुपित होने पर भी महात्मा का मन कभी भी विकार को प्राप्त नहीं होता सो ठीक ही है। क्योंकि तृण की उल्का से समुद्र का पानी
१. रसन् ब० । २. साधकम् म० । ३. साधोः प्रकोपितस्यापि मनो नायाति विक्रियाम् । न हि तापयितुं शक्यं सागराम्भस्तृणोल्कया ॥
हितोपदेशे ।