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वर्धमानचरितम्
अतिरोषवतो हितं प्रियं वचनं प्रत्युत कोपदीपकम् । ● शिखिततमे हि सर्पिषि प्रपतत्तोयमुपैति वह्निताम् ॥३४ अभिमानिनमाचेतसं पुरुषं प्रह्वयति प्रियं वचः । ननु तद्विपरीतचेष्ठितः किमु साम्नैति खलोऽनुकूलताम् ॥३५ मृदुतामुपयाति वह्निना खरतामेति जलेन चायसम् । इति वैरिनिपीडितस्तथा विनत याति खलो न चान्यथा ॥ ३६ द्वयमेव विधीयते मतं द्वितये नीतिविदा महात्मना । विनयो महति स्वबान्धवे प्रतिपक्षे च पराक्रमो महान् ॥३७ द्वयमेव सुखावहं परं पुरुषस्याभिमतं सतामपि । अभयत्वमरौ पुरः स्थिते प्रियनारीभृकुटौ च भीरुता ॥ ३८ अपि नाम तृणं च दुर्बलं प्रतिकूलस्य न मातरिश्वनः । प्रणति प्रतिपद्यते वरं पुरुषात्तन्नमतः स्वयं रिपुम् ॥३९ गुरुतामुपयाति यन्मृतः पुरुषस्तद्विदितं मयाधुना । ननु लाघवहेतुरर्थना न मृते तिष्ठति सा मनागपि ॥४० सहसैव परं क्षमाधरो ननु तुङ्गोऽपि जनेन लङ्घयते । न भवत्यथ कस्य वा सतः परिभूतेरिह कारणं क्षमा ॥४१
को ही प्रज्वलित करनेवाले होते हैं सो ठीक ही है; क्योंकि अग्नि के द्वारा अत्यन्त तपे हुए घी पर पड़ता हुआ पानी अग्निपने को प्राप्त हो जाता है ॥ ३४ ॥ जिसका चित्त आर्द्र है ऐसे अभिमानी मनुष्य को प्रिय वचन नम्र कर देता है परन्तु जिसकी चेष्टा इससे विपरीत है ऐसा दुष्ट मनुष्य भी क्या साम उपाय के द्वारा अनुकूलता को प्राप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता ।। ३५ ।। जिसप्रकार लोहा अग्नि के द्वारा कोमलता को प्राप्त होता है और पानी के द्वारा कठोरता को । उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य शत्रु के द्वारा पीड़ित होने पर नम्रता को प्राप्त होता है अन्य · प्रकार से नहीं ||३६|| नीति के ज्ञाता महात्मा के द्वारा दो में दो प्रकार का कार्य किया जाता है । अर्थात् अपने बन्धुस्वरूप महापुरुष के विषय में तो विनय की जाती है और शत्रु के विषय में महान पराक्रम प्रकट किया जाता है ||३७|| पुरुष के लिए दो ही कार्य परम सुखदायक हैं ऐसा सत्पुरुषों का भी अभिमत है । वेदो कार्य ये हैं कि शत्रु के सामने स्थित रहने पर निर्भय रहा जावे और प्रिय स्त्री की भृकुटी चढ़ने पर भयभीत हुआ जावे ||३८|| दुर्बल तृण भी विपरीत वायु के सामने नम्रता को प्राप्त नहीं होता अतः वह शत्रु को स्वयं नमस्कार करनेवाले पुरुष की अपेक्षा उत्कृष्ट है ||३९|| मरा हुआ मनुष्य जो गुरुता को प्राप्त होता है- भारी वजनदार हो जाता है उसका कारण मैं इस समय • समझ गया । निश्चय ही लघुता का कारण याचना है और मरे हुए मनुष्य में वह किञ्चित् भी नहीं रहती । भावार्थ - जीवित मनुष्य की अपेक्षा मृत मनुष्य का शरीर भारी क्यों होता है ? इसका कवि ने अपनी कल्पना से यह उत्तर दिया है कि जीवित मनुष्य के शरीर की लघुता का कारण याचना है, मरने पर वह याचना इञ्चमात्र भी शेष नहीं रहती इसीलिये मृत मनुष्य का शरीर भारी जाता है ॥ ४० ॥ जिस प्रकार ऊँचे से ऊँचा भी क्षमाधर - पर्वत मनुष्य के द्वारा १. नीतिविदां म० । २. महात्मनाम् म० ।