________________
षष्ठः सर्गः
ज्याघातजैः किणकणैः स्थपुटाग्रहस्तो हस्तद्वयेन मथिनारिकुलाचलेन । संवर्णयन्नुरसि हारलतां न चक्रे सूत्रावशेषमपि संसदि कामदेवः ॥३५ योद्धुं द्विषा सह वियत्प्रविगाहमानो सभ्यैर्धृतौ कथमपीश्वरवज्रदंष्ट्रौ । उत्खातधौतक रवालकर प्ररोह-प्रारोहभासुरितदक्षिणबाहुदण्डौ ॥३६ कालान्तरादधिगतावसरोऽप्यनेन नाङ्गीकृतोऽहमिति रुष्ट इवास्तकोषः । दूरादकम्पननृपस्य यथार्थनाम्नः कुप्यत्यहो सदसि चञ्चलधीर्न धीरः ॥३७ आस्फालिता रभस निर्दयदष्टकान्तदन्तच्छदेन बलिनाशनिविक्रमेण । क्रुद्धेन दक्षिणकरेण गभीरनादं भूरारसज्झणझणायितभूषणेन ॥ ३८ आलोक्य कोपपरिपाटलितेक्षणाभ्यां नीराजयन्निव सभामभिमानशाली । इत्युद्धतः सदसि धूमशिखो जगाद व्यात्ताननप्रसृतधूमविधू मिताशः ॥ ३९ आज्ञापाल तिष्ठसि किं वृथैव प्रज्ञा सतां परिभवे सति निर्व्यपेक्षा । वामेन किं करतलेन धरामशेषामुद्धृत्य चक्रधर वारिनिधौ क्षिपामि ॥४० लोकाधिकां नमिकुलप्रवरस्य पुत्रीं कण्ठे कृतामसदृशा मनुजेन तेन । को वा "सत्वसहन न विधेर्मनीषां दृष्टवा शुतो गल इवोज्ज्वलरत्नमालाम् ॥४१
प्रत्यञ्चा के आघात से उत्पन्न भट्टों के द्वारा जिसके अग्रहस्त ऊँचे-नीचे हो गये थे ऐसा कामदेव, शत्रुसमूह रूप पर्वत को नष्ट करनेवाले अपने दोनों हाथों से वक्षस्थल पर पड़ी हुई हाररूपी ता
सभा में इस प्रकार चूर-चूर कर रहा था कि सूत भी शेष नहीं रह गया था । भावार्थ - कामदेव नाम का विद्याधर अपनी छाती पर इतने जोर से हाथ पटक रहा था कि उससे हार का सूत भी शेष नहीं बचा था - सब टूटकर नीचे गिर गया था ।। ३५ ।। शत्रु के साथ युद्ध करने के लिये जो आकाश में उछल रहे थे, तथा उभारी हुई उज्ज्वल तलवार की किरणरूप अंकुरों के चढ़ने से जिनके दाहिने भुजदण्ड देदीप्यमान हो रहे थे ऐसे ईश्वर और वज्रदंष्ट्र नाम के विद्याधर सभासदों द्वारा किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से पकड़े जा सके थे || ३६ || यद्यपि बहुत समय बाद मुझे अवसर प्राप्त हुआ था तो भी इसने मुझे स्वीकृत नहीं किया इस कारण रुष्ट होकर ही मानों सार्थक नामधारी अकम्पन राजा का क्रोध उससे दूर रहा अर्थात् उसे क्रोध नहीं आया, वह गम्भीर मुद्रा में ही बैठा रहा सो ठीक ही है, क्योंकि सभा में चञ्चल बुद्धिवाला मनुष्य ही क्रोध करता है धीरवीर नहीं ।। ३७ ।। जिसने बड़े वेग से निर्दयतापूर्वक अपना सुन्दर ओठ डंस लिया था तथा वज्र के समान जिसका पराक्रम था ऐसे कुपित राजा बली ने झणझण शब्द करनेवाले आभूषणों से युक्त दाहिने हाथ से पृथिवी को इतने जोर से पीटा कि वह गम्भीर शब्द करती हुई चिल्ला उठी ||३८|| जो क्रोध से लाल-लाल नेत्रों के द्वारा देख कर सभा की आरती उतारता हुआ-सा जान पड़ता था तथा खुले मुख से फैले हुए धूम के द्वारा जिसने दिशाओं को धूप युक्त कर दिया था ऐसा उद्धत अहंकारी राजा धूमशिख सभा में इस प्रकार बोला ।। ३९ ।। हे अश्वग्रीव ! आज्ञा करों, व्यर्थ क्यों बैठे हो ? पराभव होने पर सत्पुरुषों की प्रज्ञा किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं करती । हे चक्रधर ! मैं क्या इस समस्त पृथिवी को बाँयें हाथ से उठाकर समुद्र में फेंक दूँ ? ॥ ४० ॥ कुत्ते के गले में १. किणकिणैः म० । २. रसा ररास । स्फीताम्बरं रणरणायित-म० । ३. 'म' पुस्तकेऽस्य श्लोकस्य पूर्वार्धोत्तरार्धयोर्व्यत्ययो वर्तते । ४. ननु ब० । ५. सहत्यसहनो न विधेर्मनीषी म० ।