________________
७०
वर्धमानचरितम् एतेषु कश्चिदपि यः खचराधिपेषु भ्रूविभ्रमेण भवताभिहितः स एव । आकस्मिकं नमिकुलप्रलयं विधत्ते काकेषु नाथ मनुजेषु च तस्य कास्या ॥४२ क्रुद्धे यमे त्वयि च जीवति कः क्षणं वा लोके प्रसिद्धमिति वाक्यमिदं च जानन् । इत्थं विरोधमकरोत्स कथं पुनस्ते सीदत्यहो मतिमतां मतिरप्यभावे ॥४३ अत्रात्मबन्धुनिवहैः सह नागपाशैर्बद्ध्वा वधूवरयुगं सहसानयामः। इत्युत्थिताननुनयन्खचरान्कथंचिन्मन्त्री निवार्य हयकन्धरमित्यवादीत् ॥४४ निष्कारणं किमिति कुप्यसि नाथ बुद्धिर्याता क्व ते सकलनीतिपथप्रवीणा। कोपान्न शत्ररपशेऽस्ति शरीरभाजां लोकद्वयेऽपि विपदां नन हेतुभूतः ॥४५ तृष्णां विवर्धयति धैर्यमपाकरोति प्रज्ञां विनाशयति संजनयत्यवाच्यम् । संतापयेत्स्ववपुरिन्द्रियवर्गमुग्रः पित्तज्वरप्रतिनिधिः पुरुषस्य कोपः ॥४६ रागं दृशोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं चित्ते विवेकरहितानि विचिन्तितानि । पुंसाममार्गगमनं श्रमदुःखजातं कोपः करोति सहसा मदिरामदश्च ॥४७ यः कुप्यति प्रतिपदं भुवि निनिमित्तमाप्तोऽपि नेच्छति जनः सह तेन सख्यम् ।
मन्दानिलोल्लसितपुष्पभरानतोऽपि कि सेव्यते विषतरुमधुपव्रजेन ॥४८ उज्ज्वल रत्नों की माला के समान उस असदृश मनुष्य के द्वारा कण्ठ में लगाई हुई विद्याधर राजा की लोकोत्तर–श्रेष्ठ पुत्री को देखकर कौन असहनशील मनुष्य विधाता की बुद्धि की हँसी नहीं करता? अर्थात् सभी करते । भावार्थ-जिस प्रकार कुत्ते के गले में पहनायी हुई देदीप्यमान रत्नों की माला को देख कर सब लोग पहनाने वाले की हँसी करते हैं उसी प्रकार उस अयोग्य भूमिगोचरी मनुष्य के गले लगी हुई विद्याधर की श्रेष्ठ पुत्री को देख कर सब लोग विधाता की बुद्धि पर हँसते हैं ॥४१॥ इन विद्याधर राजाओं में भौंह के संकेत से जिस किसी को भी आप कह देंगे वही नमिवंश का आकस्मिक विनाश कर देगा सो ठीक ही है, क्योंकि हे नाथ ! कौओं और भूमिगोचरी मनुष्यों
उसका आदर ही क्या है ?-उन्हें वह समझता ही क्या है ? ॥४२।। यमराज तथा आपके कूपित होने पर क्षणभर के लिये भी कौन जीवित रहता है ? इस लोक प्रसिद्ध वाक्य को जानते हुए भी उसने इस तरह आपका विरोध क्यों किया? आश्चर्य है कि मृत्यु का अवसर आने पर बुद्धिमान् मनुष्यों की भी बुद्धि नष्ट हो जाती है ।। ४३ ।। अपने बन्धु समूह के साथ वधू-वर की जोड़ी को नागपाश से बाँध कर हम इसी समय यहाँ ले आते हैं इस प्रकार कह कर खड़े हुए विद्याधरों को किसी तरह अनुनय-विनयपूर्वक रोक कर मन्त्री ने अश्वग्रीव से यह कहा ।। ४४ ॥ हे नाथ ! इस प्रकार बिना कारण आप क्रोध क्यों करते हैं ? समस्त नीतिमार्ग में निपुण आपकी बुद्धि कहाँ चली
दी दोनों लोकों में प्राणियों की विपत्ति का कारण क्रोध से बढकर दूसरा शत्र नहीं है ।। ४५ ।। तीव्र क्रोध पित्तज्वर के समान पुरुष की तृष्णा-लालच ( पक्ष में प्यास ) को बढ़ाता है, धैर्य को दूर करता है, बुद्धि को नष्ट करता है, अवाच्य-न कहने योग्य वचनों को उत्पन्न करता है, और अपने शरीर तथा इन्द्रियसमूह को संतप्त करता है ।। ४६ ।। क्रोध और मदिरा की नशा शीघ्र ही पुरुषों की दृष्टि में लालिमा, शरीर में नाना प्रकार का कम्पन, मन में विवेक रहित विचार, कुमार्ग में गमन तथा श्रम और दुःखों के समूह को उत्पन्न करती है ॥ ४७ ।। जो मनुष्य -
गई?स
१. नमः ।