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षष्ठः सर्गः तत्त्वावलोकनकरैर्जगदेकदीर्घर्मातेरिव मयूखचयैरुलूकः । वाक्यैः स तस्य तमसि प्रतिबद्धबुद्धिर्दुष्टः प्रबोधमगमन्न तुरङ्गकण्ठः ॥५९ दुःशिक्षितैरनवलोकितकार्यपाकैः कैश्चित्समेत्य निजबुद्धिबलावलिप्तः। उत्तेजितः सचिवमित्यवदत्स कोपाद भ्रूभङ्गभङ्गरिततुङ्गललाटपट्टः॥६० 'नोपेक्षते परिणातावथ पथ्यमिच्छन्नल्पीयसीमपि रिपोरभिवृद्धिमिधाम् । अस्वन्तको ननु भवत्यचिरादरातिः काले गदश्च सहसा परिवर्द्धमानः ॥६१ पद्माकरं समवलम्ब्य स राजहंसः पक्षान्वितोऽपि कुरुते भुवि न प्रतिष्ठाम् । एकत्र शत्रुजलदेऽपि ननु स्वकाले गर्जत्युपात्तनिशितासितडित्कराले ॥६२ भूरिप्रतापसहितैरविभिन्नदेहैस्तेजोमयैरगणितैः सहितः सहायैः।
उद्यन्न साधयति किं भुवनं जिगीषु स्वान्करैरिव गृहीतसमस्तदिक्कैः ॥६३ अन्धकार में जिसकी बुद्धि लग रही है ऐसा दुष्ट उल्लू, पदार्थों का दर्शन करानेवाले तथा जगत् को अद्वितीय रूप से प्रकाशित करनेवाले सूर्य की किरणों के समूह से प्रबोध को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार तम-क्रोधप्रधान तमोगुण में जिसकी बुद्धि लग रही थी ऐसा दुष्ट अश्वग्रीव मन्त्री के वचनों से प्रबोध को प्राप्त नहीं हुआ ॥ ५९ ॥ जो अपने बुद्धिबल के अहंकार से युक्त था ही, उसपर खोटी शिक्षा से युक्त और कार्य के फल का विचार न करनेवाले कुछ लोगों ने आकर जिसे उत्तेजित कर दिया था, फलस्वरूप क्रोध के कारण भौंहों के भङ्ग से जिसका ऊँचा ललाट तक कुटिल हो रहा था ऐसा अश्वग्रीव मन्त्री से इस प्रकार बोला ॥६०॥ तदनन्तर फलकाल में हित की इच्छा रखनेवाले मनुष्य, शत्रु के प्रकाश में आनेवाली थोड़ी भी अभिवृद्धि की उपेक्षा नहीं करता, क्योंकि सहसा बढ़ता हुआ शत्रु और रोग समय आने पर शीघ्र ही दुःखदायक होते हैं । भावार्थ-बढ़ते हुए शत्रु और रोग की उपेक्षा करनेवाला मनुष्य फल काल में दुरन्त-दुःख को प्राप्त होता है ॥६१।। वर्षाकाल में बिजली की कौंध से भय उत्पन्न करनेवाले मेघ के गरजने पर जिस प्रकार राजहंस पक्षी पद्माकर-कमलवन का आश्रय लेकर तथा पक्षों-पङ्खों से युक्त होने पर भी पृथिवी में एक स्थान पर प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता अर्थात् एक स्थान पर स्थित नहीं रहता उसी प्रकार ग्रहण की हुई पैनी तलवाररूपी बिजली से भयंकर शत्रुरूपी मेघ के गरजने पर राजहंस-श्रेष्ठ राजा भले ही पद्माकर-लक्ष्मी के हस्तावलम्बन को प्राप्त हो अथवा पक्ष-सहायक राजाओं से संयुक्त हो तो भी पृथिवी पर एक जगह प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता । भावार्थ-धनबल और जनबल से सहित बड़े से बड़ा राजा भी, शत्रु के विरोध में खड़े होने पर पृथिवी में एक जगह स्थिर नहीं रह सकता। अश्वग्रीव, मन्त्री के वचनों का उत्तर देता हुआ कह रहा था कि ज्वलनजटी, कितना ही धनबल और जनबल से युक्त क्यों न हो मेरे विरोध में खड़े होने पर एक जगह स्थिर नहीं रह सकेगा ॥६२॥ जिस प्रकार उद्यन्–उदय को प्राप्त होता हुआ सूर्य, बहुत भारी तपन से सहित, अखण्ड, तेजोमय, अगणित, सहगामी और दिशाओं को व्याप्त करनेवाली किरणों से क्या जगत् को सिद्धि नहीं करता? अपने अधीन नहीं करता उसी प्रकार उद्यन्—आगे
१. उपेक्षितः क्षीणबलोऽपि शत्रुः प्रमाददोषात्पुरुषैर्मदान्धैः ।
साध्योऽपि भूत्वा प्रथमं ततोऽसावसाध्यतां व्याधिरिव प्रयाति ॥ इति समानानार्थकः श्लोकः .
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