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वर्धमानचरितम्
भ्रूभङ्गभङ्गुरमुखः परिपाटलाक्षः प्रस्वेदवारिलवकीर्णकपोलमूलः । दोलायितोन्नततनुः स्फुरिताधरोऽभूद् भीमः स्वयं सदसि कोपवदुग्रकोपः ॥२९ विद्यावलिप्तहृदयः शरणातुराणां दत्ताभयः प्रतिभये सति नीलकण्ठः । उच्चैहास ककुभां विवराणि कोपात् प्रध्वानयन्कहकहध्वनिभिर्गभीरैः ॥३० स्वेदार्द्रनिर्मलतनुप्रतिबिम्बितेन क्रुद्धेन संसदि गतेन जनेन तेन । आसीदनेकमिव हन्तुमरीन्विकुर्वन् विद्याबलेन बलमाजिरसेन सेनः ॥३१ क्रोधोद्धतः समदशात्रवदन्तिदन्तप्राप्ताभिघातविपुलवणमग्नहारम् । वक्षःस्थलं विपुलमुत्पुलकं करेण वामेतरेण परिघः परितो ममार्ज ॥३२ निर्व्याजपौरुषवशीकृतवैरिव,विद्याविभूतिजनितोन्नतिरुन्नतांसः। उौं जघान कुपितो हरिकन्धराः कर्णोत्पलेन चलितालिकुलाकुलेन ॥३३ भूरिप्रतापपरिपूरितसर्वदिक्कः पद्माकरार्पितजगत्प्रणताग्रपादः ।
कोपाज्जनक्षयमिव प्रथयन्विवर्णस्तूर्ण दिवाकर इवैष दिवाकरोऽभूत् ॥३४ हो ।॥ २८ ॥ भौंहों के भङ्ग से जिसका मुख भङ्गुर हो रहा था, जिसके नेत्र लाल-लाल थे, जिसके गालों का मूलभाग पसीना के जलकणों से व्याप्त था, जिसका ऊँचा शरीर झूला के समान चञ्चल था तथा जिसका ओठ फड़क रहा था ऐसा तीव्रकोधी भीम नाम का विद्याधर, सभा में स्वयं क्रोध के समान हो रहा था ।। २९ ॥ जिसका हृदय विद्या के गर्व से गर्वीला था तथा जो भय का अवसर उपस्थित होने पर शरणागत दुखी मनुष्यों को अभयदान देता था, ऐसा नीलकण्ठ नामका विद्याधर क्रोधवश कहकहा की गम्भीर ध्वनि से दिशाओं के अन्तराल को शब्दायमान करता हुआ जोर से हँसा ॥३०॥ सेन विद्याधर के पसीना से आर्द्र निर्मल शरीर में सभास्थित क्रुद्ध लोगों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था इससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों युद्ध-सम्बन्धी अनुराग से शत्रुओं को मारने के लिये विद्याबल से अनेक सेनारूप विक्रिया कर रहा हो ॥ ३१॥ क्रोध से उद्धत परिघ, शत्रुओं के मदोन्मत्त हाथियों के दाँतों से प्राप्त विस्तृत घावों में जिसका हार निमग्न हो गया था तथा जिसमें रोमाञ्च उठ रहे थे ऐसे अपने चौड़े वक्षःस्थल को दाहिने हाथ के द्वारा सब ओर से साफ कर रहा था ॥ ३२ ॥ जिसने निष्कपट पौरुष से शत्रुसमूह को वश कर लिया था, विद्या के वैभव से जिसकी अत्यधिक उन्नति हुई थी तथा जिसके कन्धे ऊँचे उठे हुए थे ऐसा अश्वग्रीव कुपित हो चञ्चल भ्रमर समूह से व्याप्त कर्णोत्पल के द्वारा पृथिवी को ताडित कर रहा था, भावार्थ-कानों से कर्णोत्पल निकाल-निकाल कर पृथिवी पर पटक रहा था ॥३३॥ बहुत भारी प्रतापरूपी तेज से जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्त कर दिया था ( पक्ष में बहुत भारी तपन से जिसने समस्त दिशाओं को पूर्ण कर दिया था ); जिसके जगत् द्वारा नमस्कृत चरणों का अग्रभाग पद्माकर-लक्ष्मी के हाथों में अर्पित था अर्थात् लक्ष्मी जिसके चरण दाबती थी ( पक्ष में जिसके जगत् के द्वारा नमस्कृत किरणों का अग्रभाग पद्माकर-कमल वन में अर्पित था अर्थात् जिसकी किरणें कमलों के समूह पर पड़ रही थीं); जो क्रोध से मानों मनुष्यों के विनाश को विस्तृत कर रहा था तथा जिसका वर्ण स्वयं फीका पड़ गया था ऐसा दिवाकर विद्याघर, शीघ्र ही दिवाकर-सूर्य के समान हो गया था ॥ ३४ ॥
१. कन्धराङ्कः म०।