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वर्धमानचरितम् लौकान्तिकामरैरेत्य बोधितेन स्वयंभुवा । स दीक्षां पुरुदेवेन मरीचिः सममग्रहीत् ॥६५ दीनेन दुःसहास्तेन सेहिरे न परीषहाः । नैर्ग्रन्थ्यं हि परं धत्ते धोरचित्तो न कातरः॥६६ प्रविहाय तपो जैनं संसारोन्मूलनक्षमम् । स्वयं प्रवर्तयामास सांख्यं सांख्यविदां वभुः ॥६७ 'नियुज्य कापथे तस्मिन्नन्यानप्यल्पमेधसः । मस्करी घोरमिथ्यात्वादाचचार चिरं तपः ॥६८ मृत्युमासाद्य कालेन मरीचिः कुटिलाशयः। त्रिदशः पञ्चमे कल्पे कायक्लेशफलादभूत् ॥६९ दशामनुभवन्दिव्यां दशाम्भोराशिराजितः। अवसत्सुरनारीभिस्तत्र नेत्राद्धंवीक्षितः ॥७० आससाद कृतान्तस्तं जीवितान्ते निरङ्कशः। संसृतौ वर्तमानस्य कस्य मृत्युरगोचरः ॥७१ पुरे कौलीयके जातः सर्वशास्त्रविशारदः । द्विजन्मा कौशिको नाम कौसीयेन विजितः ॥७२ तस्य प्रणयिनी चासीत्कपिला कपिलोपमा। निसर्गमधुरालापा भर्तृपादैकदेवता ॥७३ अजायत तयोः प्रेयान् स्वर्गादेत्य सुतः सुरः। तन्वन्मिय्यादृशां चित्ते मैत्री मैत्रायणः पराम् ॥७४
पारिव्रज्यं तपो घोरमाचार्याचार्यतां गतः । क्रुद्धनेवेति स प्रापे कृतान्तेन कृतान्तकृत् ॥७५ था॥ ६४ ॥ लौकान्तिक देवों ने आकर जिन्हें संबोधित किया था ऐसे स्वयंभू-भगवान् वृषभदेव के साथ उस मरीचि ने दीक्षा ग्रहण की थी ।। ६५ ।। परन्तु वह दीन कठिन परीषहों को सहन नहीं कर सका सो ठीक ही है, क्योंकि उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ दीक्षा को धीरचित्त मनुष्य ही धारण करता है, कायर मनुष्य नहीं ॥ ६६ ॥ सांख्यमत के जाननेवालों में श्रेष्ठ उस मरीचि ने, संसार का उन्मूलन करने में समर्थ जैन तप छोड़ कर स्वयं सांख्य मत चलाया ।। ६७ ॥ उस भ्रष्ट साधु ने, अल्प बुद्धि वाले अन्य लोगों को भी उस कुमार्ग में लगाकर तीव्र मिथ्यात्व के कारण चिरकाल तक तपश्चरण किया ॥ ६८ ॥ कुटिल अभिप्राय वाला मरीचि यथासमय मृत्यु को प्राप्त होकर कायक्लेश के फल स्वरूप पञ्चम स्वर्ग में देव हुआ॥ ६९ ॥ दिव्य अवस्था का अनुभव करता हुआ वह देव दशसागर की आय से सुशोभित था। देवाङ्गनाओ द्वारा अर्धनेत्रो से देखा जानेवाला वह देव वहाँ सूख से निवास करता था ॥ ७० ॥ आयु के अन्त में निरङ्कश मृत्यु उसे प्राप्त हुई सो ठीक ही है; क्योंकि मृत्यु संसार में रहनेवाले किस मनुष्य का विषय नहीं है ? अर्थात् किसकी मृत्यु नहीं होती है ? ७१।। कौलीयक नगर में एक कौशिक नाम का ब्राह्मण रहता था जो समस्त शास्त्रों में निपुण था और ब्याज आदि के व्यापार से रहित था॥७२॥ उसकी कपिला-रेणुका के समान कपिला नाम की प्रिया थी जो स्वभाव से ही मधुरभाषिणी तथा पति के चरणों को अद्वितीय देवता माननेवाली थी ॥ ७३ ॥ मरीचि का जीव देव, स्वर्ग से आकर उन दोनों के मैत्रायण नाम का प्रिय पुत्र हुआ । वह मैत्रायण मिथ्यादृष्टि जीवों के चित्त में मित्रता को विस्तृत करनेवाला था ।। ७४ ।। परिव्राजकता, कठिन तप और आचार्यों की आचार्यता को प्राप्त हुआ वह मैत्र्यायण कृतान्तकृत्-यम का छेदन करनेवाला था (पक्ष में अनेक शास्त्रों की रचना करनेवाला था) इसलिये ही मानों क्रुद्ध होकर १. मरीचिश्च गुरोर्नप्ता परिवाड्भूयमास्थितः । मिथ्यात्ववृद्धिमकरोदपसिद्धान्तभाषितैः ॥ ६१ ॥ तदपज्ञमभूद्योगशास्त्रं तन्त्रं च कापिलम् । येनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ।। ६२ ॥
-महापुराण पर्व १७. विधाय दर्शनं सांख्यं कुमारेण मरीचिना । व्याख्यातं निजशिष्यस्य कपिलस्य पटीयसा ।। १८ ।।
-धर्मपरीक्षा परिच्छेद १८. २. अभवत् ब०। ३. कोलीयके ब०।