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वर्धमानचरितम्
न ददाति वनं स याच्यमानो भवता तद्गतरम्यतानुरक्तः । अवलोकय नाथ शुद्धबुद्धया ननु कस्याभिमते मतिर्न लुब्धा ॥३९ अनवाप्य वनं प्रयासि कोपं प्रियया वाक्कशया प्रताड्यमानः । हरणाय हठात्प्रवर्तसे चेत्प्रतिपक्षस्य तदानपेक्ष्य पक्षम् ॥४० स्थितिहीनमिति प्रतीतसत्त्वाः सकलास्त्वामपहाय राजमुख्याः । उपयान्ति तदा तमेव धीरं भुवि विख्यातनदा इवाम्बुराशिम् ॥४१ विजितान्यनरेश्वरोऽपि राजन्युवराजस्य पुरो न भासि युद्धे । कुमुदाकरबन्धुवद्दिनादौ किरतो रश्मिचयं सहस्ररश्मः ॥४२ अथवा निहतः स युद्धरङ्ग भवता दैववशेन वा कथंचित् । पिदधाति जगज्जनापवादो बहुले नक्तमिवान्धकारराशिः ॥४३ अनपेतनयं विपाकरम्यं वचनं कर्णरसायनं बुधानाम् । हितमित्यभिधाय मन्त्रिमुल्ये विरते प्रत्यवदन्नराधिनाथः ॥४४ इदमीदृशमेव यत्प्रणीतं भवता कृत्यविदा तदेव कृत्यम् । तमुपायमुदीरयार्य येन क्षतहीनं तदवाप्यते सुखेन ॥४५ इति तद्वचनं निशम्य पत्युः पुनरूचे सचिवो विचारदक्षः । तमुपायवरं वयं न विद्मः कुशलो यस्तदवाप्तये विपाके ॥४६
है ।। ३८ ॥ आप याचना करते हैं और वन की सुन्दरता में अनुरक्त युवराज वन को नहीं देता है तो हे स्वामिन् ! यहाँ आप शुद्ध बुद्धि से-पक्षपातरहित दृष्टि से देखिये । इष्ट वस्तु में किसकी बुद्धि लब्ध नहीं होती? अर्थात् सभी की बुद्धि लुब्ध रहती है ।। ३९ ।। यदि वन को न पाकर आप क्रोध को प्राप्त होते हैं अथवा स्त्री के द्वारा वचनरूपी कोड़ा से ताड़ित होते हुए विरोधी के पक्ष की उपेक्षा कर हठपूर्वक हरण करने के लिये प्रवृत्त होते हैं तो शक्तिसम्पन्न समस्त प्रमुख राजा 'यह नीति से भ्रष्ट है' ऐसा समझ आपको छोड़कर उसी धीर-वीर के पास उसप्रकार चले जावेंगे जिसप्रकार कि पृथिवी पर प्रसिद्ध नद समुद्र के पास चले जाते हैं । ४०-४१ ।। हे राजन् ! यद्यपि आपने अन्य राजाओं को जीत लिया है तो भी युद्ध में युवराज के आगे आप उस तरह सुशोभित नहीं हो सकते जिस तरह कि दिन के प्रारम्भ में किरण-समूह को विखेरनेवाले सूर्य के सामने चन्द्रमा सुशोभित नहीं होता ।। ४२ ॥ अथवा दैववश युद्ध के मैदान में वह किसी तरह आपके द्वारामारा भी गया तो जिस प्रकार कृष्णपक्ष में अन्धकार की राशि रात्रि को आच्छादित कर लेती है उसी प्रकार लोकापवाद जगत् को आच्छादित कर लेगा॥ ४३ । इस प्रकार नीति युक्त, फलकाल में रमणीय तथा विद्वानों के लिये कर्णप्रिय हितकारी वचन कह कर जब प्रधानमन्त्री चुप हो गया तब राजा ने इसका उत्तर दिया ॥ ४४ ॥ राजा ने कहा कि कार्य के जाननेवाले आपने जो कार्य कहा है यह यद्यपि ऐसा ही है तथापि हे आर्य ! वह उपाय बताओ कि जिससे किसी हानि के बिना ही सुख से वह वन प्राप्त किया जाय ।। ४५ ।। राजा के यह वचन सुन कर विचार करने में चतुर मन्त्री ने फिर कहा कि हम लोग उस श्रेष्ठ उपाय को नहीं जानते हैं जो उस वन की प्राप्ति के लिये फलकाल में
१. नराधिराजः ब०।
२. तदुपाय म० ।