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षष्ठः सर्गः
ज्ञात्वा तयोविवदिषामथ भूतधात्रीधात्रीधरप्रमुखयोर्मुखविभ्रमेण । प्रेयान्प्रजापतिनराधिपतेरमात्यः प्रोवाच वाचमिति कालविदो हि दक्षाः ॥१० सम्यक्प्रसन्नमधुना कुलदेवताभिः पक्वं शुभैश्च भवतोः सफलं च जन्म। छिन्नापि पूर्वपुरुषाचरिता स्वतेयं येनात्मनैव पुनरङ्कुरिता लतेव ॥११ त्वां देव निष्प्रतिघमात्मसमं दुरापमन्यैः प्रजापतिरभूद्भवनस्य मान्यः । कृत्स्नस्य केवलमिव प्रतिपद्य योगी प्राप्तं पदं ध्रुवमनुत्तरमप्यनेन ॥१२ इत्थं तदा निगेंदतः सचिवस्य वाक्यमाक्षिप्य खेचरपतिः स्वयमेवमचे। अभ्यर्चयन्विकचकुन्ददलैरिवान्तर्वाग्देवतां वशनरश्मिभिरिन्दुगौरैः ॥१३ ईदृग्वचो मतिमतां वर मा वदस्त्वमिक्ष्वाकबो नमिकुलस्य चिरन्तनेशाः । आराध्य कच्छतनयो यवहीन्द्रदत्तां वैद्याधरी श्रियमशि श्रियदादिदेवम् ॥१४ आज्ञामनादरसमुन्नमितान्तवामभ्रूमञ्जरीविलसनैकपदेन दत्ताम् । सज्जस्ततोऽस्य च विधातुमयं जनोऽपि पूर्वक्रमो ननु सतामविलङ्घनीयः ॥१५ संभाष्य ताविति महीपतिखेचराणां नाथौ पुरा प्रणिधिना विधिनैव सृष्टाम् ।
'स्फीतां विवाहमहिमां सुतयोविधातुमभ्युद्यतौ विविशतुर्ग्रहमुत्पताकम् ॥१६ तदनन्तर प्रजापति राजा का प्रीतिपात्र मन्त्री, मुखों के विभ्रम से राजा प्रजापति और ज्वलनजटी के बोलने की इच्छा को जान कर इस प्रकार के वचन बोला सो ठीक ही है क्योंकि चतुर मनुष्य समय के ज्ञाता होते ही हैं ॥ १० ॥ उसने कहा कि इस समय आप दोनों के कुलदेवता अच्छी तरह प्रसन्न हुए हैं, आप दोनों के पुण्य कर्मों का उदय आया है और आप दोनों का जन्म सफल हुआ है जिससे कि पूर्व पुरुषों के द्वारा आचरण की हुई यह आत्मीयता छिन्न होने पर भी लता के समान अपने आप फिर से अङकुरित हो उठी है ॥ ११॥ जिस प्रकार योगी प्रतिपक्ष रहित, आत्म-तुल्य अन्यजन दुर्लभ केवलज्ञान को प्राप्त कर समस्त लोक का मान्य हो जाता है साथ ही अविनाशी और सर्वश्रेष्ठ पद-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार हे देव ! प्रजापति भी विरोध रहित, आत्म-समान तथा अन्यजन दुर्लभ आपको प्राप्त कर समस्त लोक का मान्य हो गया है, साथ ही इसने स्थायी और सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त कर लिया है। भावार्थ-आपके साथ सम्बन्ध होने से राजा प्रजापति का गौरव सर्वमान्य हुआ है ॥ १२॥ इसप्रकार कहनेवाले मन्त्री के वचन काट कर विद्याधरों का राजा ज्वलनजटी स्वयं ही इस तरह बोला । बोलते समय चन्द्रमा के समान उसके सफेद दाँतों की किरणें बाहर निकल रही थीं उनसे वह ऐसा जान पड़ता था खिली हुई कुन्द कलियों से मानों भीतर विद्यमान सरस्वती देवी की पूजा ही कर रहा हो ॥ १३ ॥ हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ! तुम ऐसे वचन मत कहो क्योंकि इक्ष्वाकुवंशी राजा नमिवंश के प्राचीन राजा हैं। इसका कारण यह है कि कच्छ का पुत्र नमि आदि जिनेन्द्र की आराधना कर धरणेन्द्र के द्वारा दी हुई विद्याधरों की लक्ष्मी को प्राप्त हुआ था ॥ १४ ॥ इसलिये जिसका अन्तिम भाग अनादर से ऊपर उठा हुआ है ऐसी बाँयी भ्रकुटीरूप मञ्जरी के संचार के छल से दी हुई इसकी आज्ञा का पालन करने के लिये यह.जन भी-मैं ज्वलनजटी भी तैयार हूँ सो ठीक ही है क्योंकि निश्चय ही पहले का क्रम सत्पुरुषों के किये अलङ्घनीय होता ही है ॥ १५ ॥ इसप्रकार कहकर भूमिगोचरी और विद्याधरों के स्वामी १. ममलं प्रथितार्ककीर्तिम् म० । २. कृष्णस्य म० । ३. निगदितः ब० । ४. मा गदीस्त्व ब० । ५. संभाविताविति ब०। ६. कान्तां ब०।