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षष्ठः सर्गः
इत्युक्त्वा तेन मुक्तो गगनतलमगाविन्दुरिन्दीवराभं सद्यो विद्योरसंपद्विहितमधिवसन्राजमानं विमानम् ॥ ११५ इति श्रीओसगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते त्रिपृष्टसंभबो नाम पञ्चमः सर्गः ।
षष्ठः सर्गः वसन्ततिलकम्
यातेषु केषुचिदहःस्वथ खचरेन्द्रमागत्य बाह्यवनमेकदिने प्रशस्ते । अध्यासितं सह बलेन निशम्य सौम्याद् द्रष्टु ं मुदा तमुदियाय विशामधीशः ॥ १ एकेन साधुजनतां प्रति दक्षिणेन वामेन वैरिनिवहे च परेण गच्छन् । दोर्भ्यामिवोन्नतघनांसविराजिताभ्यां ताभ्यामराजत समं क्षितिपः सुताभ्याम् ॥२ आरूढवा हगतिवेगविलोलहारस्फारांशुचक्रधवलीकृतदिग्विभागः । ख्यातान्वयैः पथि निजप्रतिबिम्बकैर्वा राजन्यकैरनुगतो वनमाप भूपः ॥३
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थे तथा राजा ने जिसे यह कह कर विदा किया था कि हम उत्कण्ठित लोगों को देखने के लिये विद्याधरों के अधिपति ज्वलनजटी को शीघ्र लाओ, ऐसा वह इन्दु नामका विद्याधर, विद्यारूपी सम्पत्ति के द्वारा निर्मित सुशोभित विमान पर आरूढ़ हो शीघ्र ही नीलकमल के समान आभावाले गगनतल में चला गया - आकाश मार्ग से उड़ गया ।। ११५ ।।
इस प्रकार असग कविकृत श्रीवर्द्धमान चरित में त्रिपृष्ट की उत्पत्ति का वर्णन करनेवाला पाँचवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।। ५ ।।
छठवाँ स
अथानन्तर कितने ही दिन व्यतीत होने पर एक शुभ दिन राजा प्रजापति ने सौम्य नामक वनपाल से सुना कि विद्याधरों का राजा ज्वलनजटी सेना के साथ आकर बाह्य वन में ठहरा हुआ है। सुनते ही वह हर्ष विभोर हो उसे देखने के लिये गया ||१|| उस समय ऊँचे और स्थूल कन्धों से सुशोभित अपने पूर्वोक्त दोनों पुत्रों के साथ जाता हुआ राजा ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों अपनी दोनों भुजाओं से ही सुशोभित हो रहा है। उन में एक पुत्र जो दक्षिण – दाहिनी ओर चल रहा था वह साधु समूह के प्रति दक्षिण — सरल अथवा उदार था और दूसरा जो वाम —बाँई ओर चल रहा था वह शत्रुसमूह के ऊपर वाम - विरुद्ध था || २ || अधिष्ठित घोड़ों के गति सम्बन्धी वेग से चञ्चल हारों की विशाल किरणावली से जिन्होंने दिशाओं के विभाग को सफ़ेद कर दिया १. श्रीअसगभूपकृते म० ।