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वर्धमानचरितम्
उरुपौरुषं रिपुषु साधुषु च प्रणयं प्रजासु च नयं विनयम् । गुरुषु प्रियं च विनतेषु परां प्रथयांबभूत भुवि यः सततम् ॥४८ प्रतिपद्य भूपतिरुभे शुशुभे धृतिसाधुते इव गृहीततनू । ललने स्वकान्तिविजिताप्सरसौ स जयावतीं मृगवतों च विभुः ॥ ४९ स्ववशं विनिन्यतुरनन्यसमे सममेव ते निजमनोज्ञतया । तमिलाधिनाथम रविन्दलयाश्रुतदेवते स्वयमिव प्रकटे ॥ ५० स विशाखभूतिरवतीर्यं दिवस्तनयोऽजनि क्षितिपतेर्विजयः । स जयावतीप्रमदहेतुरभूद् भुवि यः पुरापि मगधाधिपतिः ॥५१ सकलः शशीव विमलं गगनं कुसुमोमो महदिवोपवनम् । भुवि विश्रुतं श्रुतमिव प्रशमस्तदलंचकार स कुलं धेवलम् ॥५२ अवन प्रसाधयितुमेव दिवस्तमथागतं मृगवती विबुधम् । उदरेण निर्मल रं प्रदधौ प्रथमाम्बुविन्दुमिव शुक्तिवधूः ॥ ५३ उदरस्थितस्य यशसेव युतं परिपाण्डुतामुपययौ वदनम् । असहद्विसोढुमिव तद्गुरुतां तनुतां तदीयमगमच्च वपुः ॥ ५४
हृदय के प्रसार को स्वाधीन कर रक्खा था ऐसा वह राजा स्वयं विनय के समान सुशोभित हो रहा था, अर्थात् ऐसा जान पड़ता था मानों शरीरधारी विनय ही हो ॥ ४७ ॥ जो पृथिवी पर निरन्तर शत्रुओं में विशाल पराक्रम को साधुओं में स्नेह को, प्रजाजनों में नीति को, गुरुओं में विनय को और विनीत पुरुषों में श्रेष्ठ सम्पत्ति को विस्तृत करता रहता था ।। ४८ ।। वह विभु राजा अपनी कान्ति से अप्सराओं को जीतनेवाली जयावती और मृगवती इन दो स्त्रियों को प्राप्त कर सुशोभित हो रहा था । उसकी वे दोनों स्त्रियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो शरीर को धारण करनेवाली धृति और साधुता ही हों ॥ ४९ ॥ जो स्वयं प्रकट हुई लक्ष्मी और सरस्वती के समान जान पड़ती थीं ऐसी अनन्यतुल्य उन दोनों स्त्रियों ने अपनी सुन्दरता से उस राजा को एक साथ ही अपने अधीन कर लिया था ॥ ५० ॥ जो विशाखभूति पृथिवी पर पहले मगध देश का राजा था और तप कर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ था वह वहाँ से च्युत होकर राजा के विजय नाम का पुत्र हुआ। वह विजय, जयावती माता के हर्ष का कारण था । भावार्थविशाखभूति का जीव स्वर्ग से चल कर राजा प्रजापति की जयावती नाम की रानी से विजय नाम का पुत्र हुआ ।। ५१ ।। जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रमा निर्मल आकाश को, वसन्त विशाल उपवन को, और प्रतम गुण शास्त्र को अलंकृत करता है उसी प्रकार वह विजय भी पृथिवी पर प्रसिद्ध निर्मल कुल को अलंकृत करता था ।। ५२ ।। जो पृथिवी को वश में करने के लिये ही मानों स्वर्ग से आया था ऐसे विश्वनन्दी के जीव निर्मल देव को दूसरी रानी मृगवती ने अपने उदर से शीघ्र ही उस प्रकार धारण किया जिस प्रकार कि प्रथम जल की बूँद को सीप धारण करती है ।। ५३ ।। उदरस्थित बालक के यश से युक्त होकर ही मानों माता का मुख शुक्लता को प्राप्त हो गया था और गर्भस्थित बालक की गुरुता को सहन न कर सकने के कारण ही मानों उसका
१. धवल: म० । २. मलं म० ।