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वर्धमानचरितम् अटवीषु यत्र सरसां सरसनलिनीदलैः पिहिततीरजलम् । सहसा पपौ न तृषितापि मृगी गरुडोपलस्थलविमूढ़मतिः ॥३४ सुपयोधराः शफरलोलदृशः सकलाश्च यत्र तनुवीचिभुजाः। अपि लोकसेवितनितम्बभुवः सरिवङ्गना बभुरपङ्कतया ॥३५ अनपेतपुष्पफलचारुकुनिचितैः सुधाधवलसौधचयैः। निगमैः समज्ज्वलनिवासिजनैरधरीचकार च कूरूनपि यः॥३६ पुरमस्ति पोदनमिति प्रथितं पृथु तत्र वैबुधसमूहचितम् । अधरीकृतान्यनगरं स्वरुचा नभसोऽवतीर्णमिव शक्रपदम् ॥३७ रजनीषु यत्र सदनाग्रभुवो मणिदर्पणामलरुचो व्यरुचन् । प्रतिमागतैरुडुगणैः परितो नवमौक्तिकैरिव विकीर्णतलाः ॥३८ परिवारितो धवलवारिधरैर्बहुभूमिकः स्फटिकसौधचयः।
सकलां दधावुदितपक्षततेस्तुहिनाचलस्य भुवि यत्र रुचिम् ॥३९ (पक्ष में समस्त मनुष्यों को शरण देनेवाले) थे॥ ३३ ॥ जिस देश के वनों में हरे-भरे कमलिनियों के पत्तों से आच्छादित सरोवरों के तटजल को हरिणी प्यासी होने पर भी शीघ्र नहीं पीती थी; क्योंकि गरुडमणियों का स्थल समझने से उसकी बुद्धि भ्रान्त हो गई थी॥ ३४ ॥ जिस देश की नदियाँ स्त्रियों के समान थीं; क्योंकि जिस प्रकार स्त्रियाँ सुपयोधरा-उत्तम स्तनों से युक्त होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी सुपयोधरा-उत्तम जल को धारण करनेवाली थीं, जिस प्रकार स्त्रियाँ शफरलोलदृश:-मछलियों के समान चञ्चल नेत्रों वाली होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी मछलीरूपी चञ्चल नेत्रों से युक्त थीं और जिस प्रकार स्त्रियाँ सकला-कलाओं से सम्पन्न होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी सकला अव्यक्त मधुर शब्द से युक्त थीं और जिस प्रकार स्त्रियाँ तरङ्गों के समान पतली भुजाओं से युक्त होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी पतलीतरङ्गरूपी भुजाओं वाली थीं। परन्तु आश्चर्य यह था कि नदीरूपी स्त्रियों की नितम्बभूमि यद्यपि लोगों के द्वारा सेवित थी तो भी वे अपङ्कतया–निष्कलङ्क वृत्ति से सुशोभित हो रही थीं (पक्ष में उन नदियों की तटभूमि यद्यपि मनुष्यों के द्वारा सेवित थी तो भी वे अपङ्कतया कीचड़ के अभाव से सुशोभित थीं ॥ ३५ ॥ जिनके वृक्ष फूलों और फलों से सुन्दर हैं, जो अतिसघन बसे हुए हैं, जिनके महलों के समूह चूना से सफेद हैं तथा जिनमें रहनेवाले मनुष्य अत्यन्त उज्ज्वल हैं ऐसे ग्रामों के द्वारा जो देश देवकुरु और उत्तरकुरु को भी तिरस्कृत करता है ॥ ३६॥ उस सुरमा देश में पोदन इस नाम से प्रसिद्ध विशाल नगर है । वह नगर विद्वानों के समूह से व्याप्त है, अपनी कान्ति से अन्य नगरों को तिरस्कृत करनेवाला है तथा ऐसा जान पड़ता है मानों आकाश से उतरा हुआ इन्द्र का नगर ही हो॥ ३७॥ जिस नगर में रात्रि के समय मणिमय दर्पणों के समान निर्मल कान्तिवाली भवनों की उपरितल भूमियाँ प्रतिबिम्ब रूप से आये हुए नक्षत्रों के समूह से ऐसी सुशोभित होती हैं मानों उनके स्तनों में चारों ओर से नवीन मोती ही बिखेरे गये हों॥ ३८ ॥ जहाँ सफेद मेघों से घिरा हुआ, अनेक खण्डों वाला, स्फाटिकमणि के महलों का समूह पृथिवी पर उदित पङ्खों की पंक्ति से युक्त हिमालय की सम्पूर्ण कान्ति को धारण करता हो॥ ३९ ।। जहाँ तालाबों १. सपुरलोलदृशः म०।