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वर्धमानचरितम्
यद्वक्त्रसंस्थामनवाप्य शोभां शशी समग्रोऽपि कलङ्कितोऽभूत् । प्रभिन्नमातङ्गगस्तु तस्था: केनोपमानं समुपैति कान्तिः ॥२० तस्यामभूत्प्रीतिरनन्ययोग्या खगेशिनः सद्गुणभूषितायाम् । कलानिधौ निर्मलशीलवत्यां मनोहरे को न हि सक्तिमेति ॥२१ 'दिवोऽवतीर्यार्थ विशाखनन्दी बभूव पुत्रः कमनीयमूर्त्योः । सद्भारतार्द्धस्य पति प्रहृष्टः साम्बत्सरस्तं सहस | दिदेश ॥ २२ क्रान्तापि यद्गर्भमहाभरेण मोताजिगीषामकृत त्रिलोक्याः । feared माप्युपरि प्रयाते क्रुध्यत्परं स्मारुणिताननाक्षी ॥२३ देहीतिशब्देन विवजिताभूरकारि राज्ञा सुतजन्मकाले । सानन्दवादित्र सुगीतवादैः शब्दात्मकं व्योमतलं समस्तम् ॥२४ विधाय पूजां महतीं जिनानामनुज्ञया गोत्र महत्तराणाम् । तेजस्विनः खेचरपुङ्गवोऽसौ चकार सुनोर्हयकन्धराख्याम् ॥२५ पद्माप्रियः कोमलशुद्धपादो नेत्रोत्पलानन्दकरो जनानाम् । कलाकलापं समवाप्नुवानो दिने दिनेऽवधंत बालचन्द्रः ॥२६
होता हुआ नीलकमल अपने तिरस्कारजनित संताप को दूर करने की इच्छा से ही मानों जाकर गहरे तालाब में पड़ गया है ||१९|| जिसके मुख में स्थित शोभा को न पाकर जब पूर्णचन्द्र भी हो गया तब मदस्रावी हाथी के समान चालवाली उस कनकमाला की कान्ति अन्य किस पदार्थ के साथ उपमान को प्राप्त हो सकती है ? ||२०|| सद्गुणों से विभूषित, कलाओं का भाण्डार तथा निर्मल शील से युक्त उस कनकमाला में विद्याधरों के अधिपति मयूरकण्ठ की असाधारण प्रीति थी सो ठीक ही है; क्योंकि मनोहर वस्तु में आसक्ति किसको नहीं प्राप्त होती है ? अर्थात् सभी को प्राप्त होती है ||२१|| इसके बाद जो विशाखनन्दी स्वर्ग में देव हुआ था वह वहाँ से च्युत होकर सुन्दर शरीर के धारक उन मयूरकण्ठ और कनकमाला का पुत्र हुआ । उत्पन्न होते ही हर्षविभोर ज्योतिषी ने उसे अर्द्धभरत क्षेत्र का स्वामी बतलाया || २२ || जिसके गर्भसम्बन्धी महान् भार से आक्रान्त होने पर भी माता तीनों लोकों को जीतने की इच्छा करती थी । यदि सूर्य भी ऊपर से गमन करता था तो उस पर भी वह मुख तथा नेत्रों को लाल-लाल करती हुई शीघ्र ही क्रोध करने लगती थी ॥ २३ ॥ राजा मयूरकण्ठ ने पुत्र जन्म के समय पृथिवी को 'देहि- दो' इस याचनासूचक शब्द से रहित कर दिया था तथा समस्त आकाशतल को हर्षसहित बजते हुए बाजों और संगीत के मधुर शब्दों से शब्दमय बना दिया था ।। २४ ।। कुल के वृद्धजनों की आज्ञा से उस विद्याधराधिराज जिनेन्द्र भगवान् की बहुत बड़ी पूजा कर तेजस्वी पुत्र का अश्वग्रीव नाम रखा ।। २५ ।। जो पद्माप्रिय - लक्ष्मी का पति था ( पक्ष में पद्म-कमलों का अप्रिय - शत्रु था ) जिसके पाद - चरण कोमल तथा शुद्ध थे ( पक्ष में जिसके पाद - किरण कोमल तथा निष्कलङ्क थे ) जो मनुष्यों के नेत्ररूपी नीलकमलों को आनन्द करनेवाला था तथा जो कलाओं - चौसठ कलाओं ( पल में सोलह
३. त्रिलोक्याम् म० ।
१. दिवः पतिर्योऽथ म० । ४. रुणिकाननाक्षी म० ।
२. महाजिगीषा म० । ५. बालचन्द्रमाः म० ।