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पंचमः सर्गः अथ लीलया करयुगेण हरिः समुदस्य कोटिकशिलामुपरि। प्रथयाम्बभूव निजवीर्यचयं निकषोऽथवा बलवतामवधिः ॥८८ नगरं ततः प्रतिनिवृत्य ययौ जयकेतनैर्मुकुलितार्ककरम् । उपकर्णयन्निजयशः पृथुकैरपि गीयमानमनुरागपरैः ॥४९ कृतमङ्गलं सपदि राजकुलं विजयी प्रविश्य नरनाथपतिम् । विजयानुजोऽनुविजयं शिरसा प्रणनाम चञ्चलशिखामणिना ॥९० परिरभ्य सम्मदभवाश्रु भूता नयनद्वयेन सुचिरं स पुरा। घनमालिलिङ्ग तदनु स्वसुतौ भुजयोर्युगेन पुनरुक्तमिव ॥९१ शिथिलीचकार परिरम्भणतः स चिरात्सुतौ पुलकरुद्धतनुः । तदनुज्ञया पुनरपि प्रणतो सममासितौ नृपतिपीठतटे ॥९२ परिपृच्छतः क्षितिपतेविजयेऽनुजविक्रमं वदति सत्यमपि । विनतीननो निभृतमास्त हरिनं मुदे गुणस्तुतिरहो महताम् ॥९३ इति भूपतिः सुतयुगेन समं परिरक्षया प्रमदयन् धरणीम् । सकलां शशास शरदिन्दुकलाविमलं यशः प्रतिदिशं विकिरन् ॥९४
उपजातिः अथैकदा कौतुकनिश्चलाक्षो दौवारिकः काञ्चनवेत्रहस्तः।
धावन्नुपेत्यावनिनाथमित्थं व्यजिज्ञपत्संभ्रमरुद्धवाक्यः ॥९५ ने दोनों हाथों से लीलापूर्वक कोटिक शिला को ऊपर उठाकर अपने पराक्रम समूह को विस्तृत किया सो ठीक ही है क्योंकि वह कोटिक शिला बलवान् पुरुषों को बल की कसौटी अथवा सीमा है॥ ८८ ॥ वहाँ से लौट कर त्रिपष्ट अपने नगर गया। उस समय वह नगर विजय पताकाओं से इतना सजाया गया था कि उनसे सूर्य की किरणें भी आच्छादिन हो गई थीं। नगर में प्रवेश करते समय वह, अनुराग प्रकट करने में तत्पर बालकों के द्वारा भी गाये जानेवाले अपने यश को सुन रहा था। भावार्थ-उसके यश को वयस्क लोग तो गाते ही थे पर अबोध बाल क भी प्रेम से विह्वल होकर गारहे थे ॥८९।। जिसमें मङ्गलाचार की सब विधियाँ की गई थीं ऐसे राजकुल में शीघ्र ही प्रवेश कर त्रिपृष्ट ने बड़े भाई विजय के बाद चञ्चल शिखामणि से युक्त शिर से राजा प्रजापति को प्रणाम किया ।९० ॥ राजा ने पहले चिरकाल तक हर्षजनित आंसुओं को धारण करनेवाले नयनयुगल से अपने दोनों पुत्रों का आलिङ्गन किया, पश्चात् पुनरुक्त की तरह भुजयुगल से उनका गाढ आलिङ्गन किया ॥९१॥ जिनका शरीर रोमाञ्चों से व्याप्त था ऐसे राजा ने चिरकाल वाद पुत्रों को आलिङ्गन से शिथिल-मुक्त किया । आलिङ्गन से छूटने के बाद दोनों भाईयों ने फिर से प्रणाम किया । पश्चात् उनकी आज्ञा से दोनों ही एक साथ राजसिंहासन के निकट बैठ गये ॥ ९२ ॥ बार-बार पूछनेवाले राजा से जब विजय अपने, छोटे भाई-त्रिपृष्ट के यथार्थ पराक्रम का वर्णन कर रहा था तब त्रिपृष्ट नोचा मुख कर चुपचाप बैठा था सो ठीक ही है क्योंकि अपनी गुणस्तुति महापुरुषों के हर्ष के लिये नहीं होती ॥९३ ॥ इस प्रकार शरच्चन्द्र की कलाओं के समान निर्मल यश को प्रत्येक दिशाओं में बिखेरनेवाला राजा दोनों पुत्रों के साथ संरक्षण से समस्त पृथिवी को हर्षित करता हआ उसका पालन करता था ॥ ९४ ॥ अथानन्तर कौतूक से जिसके नेत्र निश्चल हो
१. करयुगेन ब० । २. मवधेः म० ।