________________
चतुर्थः सर्गः
उपजातिः ततो महाशुक्रमवाप्य कल्पं महेन्द्रकल्पस्त्रिदशो बभूव । स षोडशाम्भोनिधिसम्मितायुर्दिव्याङ्गनालोकनलालसाक्षः ॥९२
पृथ्वी विचित्रमणिरश्मिभिर्जटलिताखिलाशामुखं शशाङ्ककिरणाङ्करद्युतिहरं विमानोत्तमम् । अनेकशिखरावलीतटनिबद्धशुभ्रध्वजं समग्रसुखसंपदा पदमधिष्ठितः पिप्रिये ॥९३
मन्दाक्रान्ता श्रित्वा जैनं व्रतमनुपमं लक्ष्मणायास्तनूजो दृष्ट्वा व्योम्नि प्रचुरविभवं खेचराणामधीशम् । वाञ्छन्भोगानकृत कृपणो दुनिदानं तपःस्थः कल्पंप्राप्तस्तमपि वपुषः 'क्लेशतः सद्वतैश्च॥९४
॥ इत्यसगकविकृते श्रीवर्धमानचरिते विश्वनन्दिनिदानोनाम चतुर्थः सर्गः ॥
ही लौट कर वापिस चले गये। उन्होंने निदान कर अपना शरीर छोड़ा सो ठीक ही है; क्योंकि क्रोध अनर्थ परम्परा का कारण है ।। ९१ ।। तदनन्तर महाशुक्र नामक स्वर्ग को प्राप्त कर वे महेन्द्रकल्प नाम के देव हुए । वहाँ सोलह सागर प्रमाण उनको आयु थी तथा देवाङ्गनाओं को देखने में उनके नेत्र सतुष्ण रहते थे ।। ९२॥ नानाप्रकार के मणियों की किरणों से जिसमें समस्त दिशाओं के अग्रभाग व्याप्त थे, जो चन्द्रमा की किरणरूप अंकुरों की कान्ति को हरण कर रहा था, जिसकी शिखरावली के तट पर सफेद रङ्ग की अनेक ध्वजाएँ फहरा रही थीं तथा जो समस्त सुखसंपदाओं का स्थान था ऐसे उस उत्तम विमान को पाकर वह बहुत ही प्रसन्न हो रहा था । ९३॥ लक्ष्मण के पुत्र विश्वनन्दी ने जिनेन्द्र भगवान् का अनुपम व्रत धारण कर तपश्चरण किया परन्तु आकाश में प्रचुर वैभव से युक्त विद्याधर राजा को देख उसे भोगों की इच्छा जागृत हो उठी। उसी इच्छा से दीन हो उसने खोटा निदान किया। फिर भी काय-क्लेश तथा सद्वतों के प्रभाव से वह महाशुक्र स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥ ९४ ।। ॥ इस प्रकार असग कविकृत श्री वर्द्धमानचरित में विश्वनन्दी के निदान
का वर्णन करने वाला चतुर्थ सर्ग पूर्ण हुआ ॥
१. श्लेषतः ब०।