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वर्धमानचरितम्
वंशस्थम्
अथावगम्याशु विशाखनन्दिनं विवर्जितं दैव पराक्रमक्रमैः । विजित्य युद्धे समुपाददे श्रियं पुरेण दायादमहीपतिः समम् ॥८६ उपजातिः
आत्मम्भरित्वादपहाय मानं तमेव दूतक्रियया सिषेवे । महीपतिः प्रागयमित्यशङ्कं निर्दिश्यमानोऽपि जनाङ्गलीभिः ॥८७ अयैकदात्युग्रतपोविभूतिर्मासोपवासेन कृशीकृताङ्गः । प्रोत्तुङ्गह मथुरां स्वकाले विवेश भिक्षां प्रति विश्वनन्दी ॥८८ शृङ्गप्रहारेण पशोः पतन्तं रथ्यामुखे साधुमसाधुवृत्तः । जहास तं वीक्ष्य विशाखनन्दी वाराङ्गना सौधतलाधिरूढः ॥८९ जगाद चेदि क्व गतं बलं ते विजित्य सेनां सकलां सदुर्गाम् । उन्मूलितो येन शिलाविशाल-स्तम्भः कपित्थश्च पुरा तदद्य ॥९०
वसन्ततिलकम्
आकर्ण्य तस्य वचनं प्रविलोक्य तं च क्षान्तिं विहाय विनिवृत्य तथैव गत्वा । कृत्वा निदानममुचन्मुनिरात्मदेहं कोपो हि कारण मनर्थपरम्परायाः ॥९१
दुर्निवार परीषहों के समूह को सहन कर तथा मिथ्यात्व माया और निदान इन तीन शल्यों को
छोड़ कर अट्ठारह सागर की आयु वाले बहुत भारी सुख से सम्पत्र दशम स्वर्ग को प्राप्त हुआ ।। ८५ ।। तदनन्तर विशाखनन्दी को शीघ्र ही दैव और पराक्रम से रहित जान उसके भागीदार अन्य राजा ने युद्ध में उसे जीतकर नगर के साथ-साथ उसकी सब सम्पत्ति छीन ली ॥। ८६ ।। 'पेट भरना है' इस अभिप्राय से विशाखनन्दी मान छोड़ कर दूत क्रिया से उसी विजेता राजा की सेवा करने लगा जब कि लोग अङ्गुलियों द्वारा निःशङ्क होकर परस्पर बताया करते थे कि यह पहले का राजा है ।। ८७ ।। तदनन्तर एक मास के उपवास से जिनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था ऐसे उग्रतपस्वी विश्वनन्दी मुनि ने योग्य समय भिक्षा के उद्देश्य से ऊँचे-ऊँचे महलों से युक्त मथुरा नगरी में प्रवेश किया ।। ८८ ।। प्रवेश करते ही गली के प्रारम्भ में एक पशु ने सींगों से उस मुनि पर प्रहार किया जिससे वे गिर पड़े। उन्हें गिरता देख दुराचारी विशाखनन्दी जो कि एक वेश्या की छत पर बैठा था हँसने लगा ।। ८९ ।। उसने कहा कि आज तुम्हारा वह बल कहाँ गया जिसने पहले दुर्गसहित समस्त सेना को जीत कर पत्थर का विशाल खम्भा और कैंथ का वृक्ष उखाड़ा था ।। ९० ।। उसके वचन सुन मुनि ने उसकी ओर घूर कर देखा तथा क्षमा भाव का परित्याग कर आहार के बिना १. कालं मासमुपोष्य स्वे विशन्तं मथुरापुरीम् । तं मध्याह्नदुघा गृष्टिर्घटोघ्नी प्राहरत्पथि ॥४१ तस्याः शृङ्गप्रहारेण पतितं विश्वनन्दिनम् । अहासी लक्ष्मण सूनुर्वेश्यासौधतले स्थितः ||४२ प्रहासात्तस्य सोत्सेकाच्चुक्रुधे मुनिना भृशम् । तेनाकारि निदानं च प्रायस्तद्वधलिप्सया ||४३ सनिवृत्त्य ततो गत्वा हित्वा तनुतरां तनुम् । महर्द्धािविबुधो जज्ञे महाशुक्रे तपःफलात् ॥४४ -- इत्यसग कविकृत शान्तिपुराण, अष्टमसर्ग.
२. विशालः स्तम्भः ब ० ।