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वर्धमानचरितम्
कृतभूरिपराभवेऽपि शत्रौ प्रतिलोमे न करोति पौरुषं यः। प्रतिबिम्बितमीक्षते स पश्चाग्निजनारीमुखदर्पणे कलङ्कम् ॥७१ अयमेव पराक्रमस्य कालो भवतो मानवतामधीश्वरस्य । कथितं च मया विचार्य कार्य सदृशं त्वद्भजयोरिदं न चान्यत् ॥७२ इति विक्रमशालिनां मनोज्ञं वचनं न्यायविदां च तस्य मत्वा । अविलम्बितमेव विश्वनन्दी प्रययावभ्यरिदुर्गमुग्रकोपात् ॥७३
वसन्ततिलकम् सेनामथ प्रमुदितां प्रधनागमस्य दूरे निवेश्य सुभटैः सह कैश्चिदेव । दुर्गावलोकनपदेन जगाम वेगाशुद्ध निधाय हृदयं युवराजसिंहः ॥७४ प्रापत्तदप्रतिमसालमलङ्घयखातं नानाविधैः परिगतं परितोऽपि यन्त्रैः। विख्यातशूर निकुरम्बकपाल्यमानं स्थानान्तरोच्छितसितध्वजवीजिताशम् ॥७५ उत्प्लुत्य खातमचिरेण विलय सालं भग्ने समं रिपुबलेन निशानखङ्गे। उत्पाटितेन सहसैव शिलामयेन स्तम्भेन भासुरकरो रिपुमाप कोपात् ॥७६ आयान्तमन्तकनिभं तमुदग्रसत्त्वमालोक्य वेपथुगृहीतसमस्तगात्रः।
तस्थौ कपित्थतरुमेत्य विशाखनन्दी मन्दीकृतद्युति वहन्वदनं भयेन ॥७७ उद्यान का अपहरण कर लेने पर भी यदि उसके हृदय में आप के प्रति बन्धुत्व का भाव होता तो वह दूत भेज कर अपने उस भाव को प्रकट करता और इस स्थिति में आपका क्रोध न करना भी उचित ठहरता । परन्तु उसने अपराध करने पर भी कोई दूत नहीं भेजा इससे सिद्ध है कि उनके हृदय में आपके प्रति कोई बन्धुत्व का भाव नहीं है । इसलिये उसके प्रति आपके हृदय में क्रोध का उत्पत्र होना उचित ही है ॥ ७० ॥ बहुत भारी तिरस्कार करनेवाले विरुद्ध शत्रु पर भी जो पौरुष नहीं करता है वह पीछे अपनी स्त्री के मुख-रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित कलङ्क को देखता है अर्थात् स्त्रियों के समक्ष उसे लज्जित होना पड़ता है ॥ ७१ ॥ आप मानी मनुष्यों के अधिपति हैं अतः आपके पराक्रम का यही काल है । मैंने यह विचार कर कार्य कहा है। तुम्हारी भुजाओं के अनुरूप यही कार्य है, अन्य नहीं ॥ ७२ ॥ इस प्रकार मंत्री के पराक्रमशाली तथा नीतिज्ञ मनुष्यों के प्रिय, वचनों को स्वीकृत कर विश्वनन्दी तीव्र क्रोध से शीघ्र ही शत्रु के दुर्ग की ओर चल पड़ा ॥ ७३ । तदनन्तर युद्ध का अवसर आने से प्रसत्र सेना को दूर खड़ी कर श्रेष्ठ युवराज •युद्ध में हृदय लगा कर कुछ ही वीरों के साथ दुर्ग देखने के बहाने वेग से गया ॥ ७४ ॥ जिसका अनुपम कोट है, जो अलंघनीय परिखा से युक्त है, जो चारों ओर नाना प्रकार के यन्त्रों से घिरा हुआ है, प्रसिद्ध शूर वीरों का समूह जिसकी रक्षा कर रहा है तथा बीच-बीच में फहराती हुई सफेद पताकाओं से जो दिशाओं को कम्पित कर रहा है ऐसे दुर्ग को वह प्राप्त हुआ॥ ७५ ॥ वह शीघ्र ही परिखा को तैर कर तथा कोट को लाँघ कर शत्रु को सेना को नष्ट करने लगा। शत्रुदल के साथ-साथ जब उसकी तीक्ष्ण तलवार भग्न हो गई तब वह शीघ्र ही उखाड़े हुए पत्थर के एक खम्भा से हाथ को सुशोभित करता हुआ क्रोधवश शत्र पर झपटा ॥ ७६ ॥ यमराज के समान शक्तिशाली युवराज को आता देख भय से जिसका समस्त शरीर काँपने लगा ऐसा विशाखनन्दी निष्प्रभ मुख को धारण करता हुआ कैंथा के वृक्ष की ओट में आकर खड़ा हो गया ॥७७॥ परन्तु