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चतुर्थः सर्गः तस्मिस्तरावपि समं स्वमनोरथेन प्रोन्मूलिते महति तेन महाबलेन । सत्रासरावरचिताञ्जलिना प्रपेदे भीत्या नमनशरणः शरणं तमेव ॥७८ पादानतं तमवलोक्य विहीनसत्त्वं सवीडमाप सहसा प्रविहाय कोपम् । नूनं भयावनतचेतसि शात्रवेऽपि प्रख्यातपौरुषनिधिः स्वयमेति लज्जाम् ॥७९ मर्धानमानतमुदस्य तदा तदीयं पर्यस्तरत्नमुकुटं स करद्वयेन। तस्मै ददावभयमूजितसाहसानां युक्तं तदेव महतां शरणागतेषु ॥८० कृत्वाहमीदृशमनात्मसमं कथं वा स्थास्यामि तस्य पुरतोऽत्र विशाखभूतेः । इत्याकलय्य हृदयेन गृहीतलज्जो राज्यं विहाय तपसे निरगादगारात् ॥८१ यान्तं तदा चरितमाचरितुं यतीनां रोद्ध शशाक समुपेत्य न तं पितृव्यः । पादानतोऽपि सकलैः सह बन्धुवगैः किंवा महान् व्यवसिताद्विनिवृत्य याति ॥८२ उल्लङघय मन्त्रिवचन विहितं परा यत तस्मात्तदानशयमाप्य नरेश्वरोऽपि । लोकापवादचकितः स्वसुते स तस्मिन् लक्ष्मी निधाय सकलां तदनु प्रतस्थे॥८३ गत्वा महीपतिभिराशु समं सहस्रः संभूतपादयुगलं प्रणिपत्य मूर्ना । दीक्षां विरेजतुरुभावपि तौ गृहीत्वा पुंसां तपो ननु विभूषणमेकमेव ॥८४ कृत्वा तपश्चिरतरं स विशाखभूतिः सोढवा परीषहगणानथ दुनिवारान् ।
हित्वा त्रिशल्यमनघं दशमं समापत् द्वयष्टाम्बुधिस्थितिमनल्प सुखं तु कल्पम्॥८५ महाबलवान् युवराज ने अपने मनोरथ के साथ-साथ जब उस महान् वृक्ष को भी उखाड़ लिया तब वह शरणरहित हो भय से नम्रीभूत होता तथा भयपूर्ण शब्दों के साथ हाथ जोड़ता हुआ उसी युवराज की शरण को प्राप्त हुआ॥ ७८ ॥ जो चरणों में नम्रीभूत है, जिसकी शक्ति क्षीण हो चुकी है तथा जो लज्जा से भरा है ऐसे उस विशाखनन्दी को देख युवराज ने शीघ्र ही क्रोध छोड़ कर उसे स्वीकृत किया सो ठीक ही है; क्योंकि प्रसिद्ध पौरुष का भाण्डार पुरुष भयभीत शत्रु के ऊपर भी निश्चय से लज्जा को प्राप्त होता है ।। ७९ ।। जिसका रत्नमय मुकुट नीचे गिर गया था ऐसे उसके नम्रीभत मस्तक को यवराज ने उसी समय दोनों हाथों से उठा कर उसे अभयदान दिया सो ठीक ही है क्योंकि अत्यन्त साहसी महापुरुषों का शरणागत मनुष्यों के विषय में वही व्यवहार
त है।८०॥ मैं अपने अननुरूप इस प्रकार के कार्य कर के उस विशाखभति के आगे किस प्रकार खड़ा होऊँगा? ऐसा हृदय से विचार कर लज्जित होता हुआ युवराज राज्य छोड़ तप के लिये घर से निकल पड़ा ॥ ८१ ॥ उस समय मुनियों के चारित्र का आचरण करने के लिये जाते हुए युवराज को चाचा विशाखभूति रोकने के लिये समर्थ नहीं हो सका सो ठीक ही है; क्योंकि समस्त बन्धुवर्ग भले ही चरणों में नम्रीभूत हो कर रोकें तो भी महान् पुरुष क्या अपने निश्चय से लौट कर पीछे जाता है ? अर्थात् नहीं जाता।। ८२॥ मन्त्री के वचनों का उल्लङ्घन कर पहले जो किया था उससे राजा विशाखभूति भी उस समय पश्चात्ताप को प्राप्त हुआ ? फलस्वरूप लोकापवाद से चकित होता हुआ वह भी समस्त लक्ष्मी अपने पुत्र के लिये देकर युवराज के पीछे चल पड़ा अर्थात् उसने भी दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया ॥ ८३ ॥ विश्वनन्दी और विशाखभूति दोनों ने शीघ्र ही एक हजार राजाओं के साथ जाकर संभूत नामक गुरु के चरणयुगल में शिर से प्रणाम किया और दोनों ही उनके समीप दीक्षा लेकर सुशोभित होने लगे सो ठीक ही है; क्योंकि एकमात्र तप ही मनुष्यों का अद्वितीय आभूषण है ॥ ८४ ॥ तदनन्तर विशाखभूति चिरकाल तक तप कर,