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वर्धमानचरितम्
उपगम्य विनिर्जितारिजातं कृतषड्वर्गजयं विशाखभूतिम् । अभिवृद्धिमियाय राजलक्ष्मीः सततं कल्पलतेव कल्पवृक्षम् ॥२४ अधिकोऽपि नयेन वीरलक्ष्म्या युवराजो बलसम्पदा पितृव्यम् । न विलङ्घयति स्म मेदिनीशं स्थितिमाक्रामति कि महानुभावः ॥ २५ ऋतुभिः सकलैः सदा परीतं विरुवन्मत्तमधुव्रतान्यपुष्टम् । वनमिन्द्रवनाभिभाविशोभं युवराजः समकारयद्विचित्रम् ॥२६ ललितेन विलासिनीजनेन व्यहरत्तत्र सह त्रिकाल रम्ये । सहकारतले रतिद्वितीय स्थितमन्वेष्टुमिवादरादनङ्गम् ॥२७ नरनाथ पतेश्च लक्ष्मणायाः प्रियसूनुः प्रथमो विशाखनन्दी | अभवन्नवयौवनेन मत्तो मदनेनापि निरङ्कुशः करीव ॥२८ स कदाचिदुदीक्ष्य वीक्षणीयं युवराजस्य वनं मदेभगामी । जननीं प्रणिपत्य वजितान्नस्तदुपादाय दिशेति याचते स्म ॥२९ तनयाय वनं प्रदत्स्व राजन्यदि कार्यं मम जीविते तवास्ति । इति सा रहसि स्ववल्लभत्वादनुबन्धेन नराधिपं बभाषे ॥३० सहसा वचनेन वल्लभाया युवराजे स्वहितैकमानसेऽपि । अगमद्विकृति विशाखभूतिः प्रियजानेः स्वजनो हि वैरिवर्गः ॥३१
के साथ श्रीधर गुरु के चरणकमलों के मूल में जाकर जिनदीक्षा धारण कर ली ।। २३ ।। जिसने शत्रुओं के समूह को जीत लिया है तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य - इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है ऐसे विशाखभूति के समीप जाकर राज्यलक्ष्मी उस तरह निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हुई जिस तरह कल्पवृक्ष के समीप जाकर कल्पलता वृद्धि को प्राप्त होती है ॥ २४ ॥ युवराज यद्यपि नीति, वीरश्री और शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा अधिक था तो भी वह अपने चाचा राजा विशाखभूति का कभी उल्लङ्घन नहीं करता था सो ठीक ही है; क्योंकि महान् पुरुष क्या मर्यादा का उल्लङ्घन करते हैं ? अर्थात् नहीं करते ।। २५ ।। तदनन्तर युवराज ने एक ऐसा अनोखा बाग बनवाया जो समस्त ऋतुओं से सदा व्याप्त रहता था, जिसमें भरे और कोयलें शब्द करती रहती थीं तथा जिसकी शोभा इन्द्र के नन्दनवन को तिरस्कृत करनेवाली थी ।। २६ । वह तीनों काल में रमणीय रहनेवाले उस बाग में सुन्दर स्त्रियों के साथ विहार करता था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों आम्रवृक्ष के नीचे रतिसहित बैठे हुए कामदेव को आदर-पूर्वक खोजने के लिये ही विहार करता था ।। २७ ।। राजा विशाखभूति और उसकी स्त्री लक्ष्मणा का विशाखनन्दी नाम का प्रथम प्रियपुत्र था जो नवयौवन से तथा काम से हाथी के समान निरङ्कुश हो रहा था ।। २८ ।। मदोन्मत्त हाथी के समान चलनेवाले विशाखनन्दी ने किसी समय युवराज के उस दर्शनीय बाग को देखकर खाना-पीना छोड़ दिया और माता के पास जाकर याचना की कि वह बाग युवराज से लेकर मुझे देदो ।। २९ ।। माता को पुत्र बहुत ही प्यारा था इसलिये उसने एकान्त में आग्रहपूर्वक राजा से कहा कि हे राजन् ! यदि तुम्हें मेरे जीवन से प्रयोजन है तो पुत्र के लिये बाग देदो ।। ३० ।। युवराज यद्यपि अपने हित में १. पक्षं ब० । २. स्थिति म० ।