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वर्धमानचरितम्
प्रतिमागतशालपद्मरागद्युतिभिः पाटलिताम्बुरम्बुखातः । नवविद्रुमजालभिन्नवीचेः सरितां पत्युरुवाह यत्र कान्तिम् ॥८ उरुसौधतलस्थदम्पतीनामतुलां कान्तिमुदीक्ष्य निर्निमेषाः । अधुनाप्यतिविस्मयेन यस्मिन्विबुधा इत्यनुमन्यते नृलोकः ॥९ सदनाग्रनिबद्धनीलभासां निवहैः संवलितैर्गभस्तिहस्तैः । विसृजन्निव सर्वतः कलङ्कं ददृशे यत्र शशी निजं निशासु ॥१० नृपतिर्जगति प्रतीतवंशो निजतेजोदवदग्धशत्रुवंशः । स्वयमथगृहीतविश्वभूतिर्नगरं तत्प्रशशास विश्वभूतिः ॥ ११ नयचक्षुरननसत्वशाली भजतां पूरयिता मनोरथानाम् । विनयैधनोज्जितो जितात्मा परमासीद् गुणसंपदां पदं यः ॥१२ अभवत्कमलेव यौवनस्य त्रिजगत्कान्तिरिवैकतामुपेता । पदवीव सतीव्रतस्य सिद्धेर्जयिनी तस्य जनेश्वरस्य जाया ॥१३ विजिताखिलभूतलो निधाय स्वहिते मन्त्रिणि राज्यतन्त्रचिन्ताम् । मृगशावदृशा तया नरेन्द्रः सह सर्वर्तुसुखानि निर्विवेश ॥१४ अवतीर्य दिवस्तयोरुदारस्तनयः ख्यातनयो बभूव देवः । अजहत्प्रकृतिकृती स दिव्यां कुशलो विश्वकलासु विश्वनन्दी ॥१५
वह
सूर्य की किरणें जहाँ व्याघ्रचर्म की शोभा को धारण करती हैं ॥ ७ ॥ प्रतिबिम्बित कोट के पद्मरागमणियों की कान्ति से जिसका पानी लाल-लाल हो रहा है ऐसी परिखा जहाँ, नवीन मूँगाओं के समूह से विभिन्न तरङ्गों वाले समुद्र की कान्ति को धारण करती है ।। ८ ।। बड़े-बड़े महलों की छतों पर स्थित स्त्री-पुरुषों की अनुपम कान्ति को देखकर अत्यधिक आश्चर्य से देव आज भी निमेष रहित हैं ऐसा जहाँ के मनुष्य समझते हैं ॥ ९ ॥ जहाँ रात्रि के समय महलों के अग्रभाग में खचित मणियों की कान्ति के समूह से व्याप्त किरणरूपी हाथों से चन्द्रमा ऐसा दिखाई देता था मानों अपने कलङ्क को सब ओर छोड़ ही रहा हो ॥ १० ॥ संसार में जिसका वंश अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसने अपने तेजरूपी दावानल से शत्रुओं के वंशरूपी बाँसों को जला दिया है तथा जिसकी समस्त विभूति याचकों के द्वारा अपने आप ग्रहण की जाती है ऐसा विश्वभूति नाम का राजा उस राजगृह नगरै का शासन करता था ॥ ११ ॥ नीति ही जिसके नेत्र हैं, जो बहुत भारी पराक्रम से सुशोभित है, जो सेवकों के मनोरथ को पूर्ण करनेवाला हैं, जो विनयरूप अद्वितीय धन से सबल है तथ जितेन्द्रिय है ऐसा वह राजा गुणरूप सम्पदाओं का अद्वितीय स्थान था || १२ | | उस राजा की जयिनी नाम की स्त्री थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानों यौवन की लक्ष्मी ही हो, अथवा एकता को प्राप्त हुई तीनों जगत् की कान्ति ही हो, अथवा पातिव्रत्यधर्म की सिद्धि का मार्ग ही हो ।। १३ ।। समस्त पृथ्वीतल को जीतनेवाला राजा विश्वभूति, अपने हितकारी मन्त्री के ऊपर राज्यतन्त्र की चिन्ता को निहित कर उस मृगनयनी के साथ समस्त ऋतुओं के सुखों का उपभोग करता था ।। १४ । स्थावर का जीव देव, ब्रह्म स्वर्ग से अवतीर्ण होकर उन दोनों के विश्वनन्दी नाम का उत्कृष्ट पुत्र हुआ । विश्वनन्दी प्रसिद्ध नीतिज्ञ था, कार्य सिद्ध करनेवाला था, उसने अपनी दिव्य – स्वर्गसम्बन्धी प्रकृति को नहीं छोड़ा था तथा समस्त कलाओं में वह कुशल था ।। १५ ।। तदनन्तर एक समय राजा