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वर्धमानचरितम्
वसन्ततिलकम् भ्रान्त्वा कुयोनिषु चिरात्कथमप्यवाप मानुष्यंकं पुनरिहाद्भुतपापभारात् । जीवस्तथाहि निजनिर्मितकामपाकानाम्येति कि किमिह नोन्मति किं न पत्ते ॥११०
इन्द्रवज्रा अस्याः पुरे भारतवास्यलक्ष्म्या लीलाम्बुजे राजगृहे द्विजोऽभूत् । शाण्डिल्यपूर्वायननामधेयः पारासरी तस्य वधूश्च नाम्ना ॥१११ भूत्वा तयोः स्थावर इत्याभिख्यां बिभ्रत्सुतः स्थावरकर्ममुक्तः। कृत्वा तपो मस्करिणां जगाम स ब्रह्मलोकं दशसागरायुः ॥११२
मालिनी सहजमणिविभूषाक्षौममन्दारमालामलयजरसरम्यं देहमासाथ सद्यः। चिरमरमत तत्र स्फीतसंपत्समेतः सुरयुवतिपरीतः पूर्णकामो निकामम् ॥११३
॥ इत्यसगकृते श्रीवर्धमानकाव्ये मरीचिमनुष्यभवलाभो नाम तृतीयः सर्गः॥३॥
वह देव का जीव स्वर्ग से च्युत हो दुःखों को भोगता हुआ चिरकाल तक त्रस और स्थावर योनियों के मध्य निवास करता रहा ॥ १०९ ॥ आश्चर्यकारी पाप के भार से चिरकाल तक कयोनियों में भ्रमण कर देव का वह जीव किसी तरह यहाँ पुनः मनुष्यभव को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है; क्यों कि अपने द्वारा किये हुए कर्म के उदय से यह जीव इस संसार में किसके सन्मुख नहीं जाता ? क्या नहीं छोड़ता ? और और क्या नहीं धारण करता? ॥ ११० ।। तदनन्तर इस भारतवर्ष की लक्ष्मी के क्रीडाकमलस्वरूप राजगृहनगर में एक शाण्डिल्यायन नाम का ब्राह्मण रहता था, उसकी स्त्री का नाम पारासरी था॥१११ । स्थावर नाम कर्म से मुक्त हआ वह जीव उन दोनों के स्थावर नाम को धारण करनेवाला पुत्र हुआ। परन्तु फिर भी परिव्राजकों का तप कर ब्रह्म लोक को प्राप्त हुआ वहाँ उसकी दश सागर की आयु थी॥ ११२ ।। सहज मणिमय आभूषण, रेशमी वस्त्र, मन्दार वृक्ष की माला तथा चन्दन-रस से रमणीय शरीर को प्राप्त कर जो शीघ्र ही विशाल सम्पत्ति से युक्त हो गया था, देवाङ्गनाओं से जो घिरा रहता था तथा जिसके मनोरथ पूर्ण हो गये थे ऐसा वह देव वहाँ चिरकाल तक अत्यधिक क्रीड़ा करता रहा ।। ११३ ।। ॥ इस प्रकार असग कविविरचित श्री वर्द्धमान काव्य में मरीचि के मनुष्य भव की प्राप्ति का
वर्णन करनेवाला तीसरा सर्ग समाप्त हुआ।३।।
१. पापभारः ब० ।
२. वास ब० ।
३. मरीचिविलपनं नाम ब०।