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तृतीयः सर्गः
२५ नात्रैव केवलं नूनं सिंह सिंहायितं त्वया। दुरन्तनादिसंसारकान्तारेऽप्यभयात्मना ॥२९ अनादिनिधनो जीवः परिणामी स्वकर्मभुक् । कर्ता शरीरमात्रोऽस्ति ज्ञानादिगुणलक्षणः ॥३० रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुञ्चति । जीवो जिनोपदेशोऽयं संक्षेपाइन्धमोक्षयोः ॥३१ अतो रागादिभिः साधं मिथ्यात्वविषमुत्सृज । काललब्ध्यादयो लभ्या नाप्नपूर्वा मतस्त्वया ॥३२ मूलं बन्धादिदोषस्य रागद्वेषावुदाहृतौ । तयोरुपचयेनैव सम्यक्त्वं च विहन्यते ॥३३ त्वया रागादिदोषैर्या भ्रान्ता जन्मपरम्परा। या सिंह धूयतां श्रोत्रं पात्रीकृत्य गिरां मम ॥३४ द्वोपेऽस्मिन्नगरी पूर्वविवेहे पुण्डरीकिणी । सार्थवाहोऽभवत्तस्यां धर्मस्वामीति धार्मिकः ॥३५ सार्थेन तस्य सार्थेन तेन साधं महामुनिः। ययौ सागरसेनाख्यो विख्यातस्तपसां निधिः ॥३६ एकदा दस्युवृन्देन तस्मिन् सार्थे विलुण्ठिते । शूरैर्मृतं गतं भीतैर्नरै रत्नपुरान्तरे ॥३७ नार्या पुरूरवानामा काश्या मधुवने युतः । ददृशे यतिना तेन दिङ्मूढेन वनेचरः॥३८
सरोऽपि मुनेर्वाक्यात्पुलिन्दोधर्ममग्रहीत् । अप्याकस्मिकतःसाधोःसंयोगात्को नशाम्यति॥३९ अहो मृगराज ! सन्मार्ग को न पाकर आप ऐसे हुए हैं ॥ २८ ॥ हे सिंह ! जान पड़ता है कि न केवल इसी पर्वत पर तूने सिंहवृत्ति धारण की है किन्तु दुःखदायक अनादि संसाररूप अटवी में भी निर्भय रहकर तूंने सिंह जैसा आचरण किया है ॥ २९ ॥ आदि अन्त से रहित, परिणमनशील, अपने कर्मों को भोगनेवाला, कर्मबन्ध को करनेवाला, शरीरप्रमाण तथा ज्ञानादिगुण रूप लक्षण से युक्त जीव नामा पदार्थ है ॥ ३० ॥ रागी जीव कर्मों को बाँधता है और वीतराग जीव कर्मों को छोड़ता है, बन्ध और मोक्ष के विषय में संक्षेप से यह भगवान् जिनेन्द्र का उपदेश है ॥ ३१ ॥ इसलिये रागादिक के साथ मिथ्यात्वरूपी विष को छोड़ो, क्योंकि प्राप्त करने योग्य कालादि लब्धियाँ तुम्हें पहले प्राप्त नहीं हुई हैं ॥ ३२ ॥ बन्ध आदि दोषों का मूल कारण राग-द्वेष कहा गया है क्योंकि उन्हीं की वृद्धि से सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है ।। ३३ ।। हे सिंह ! रागादि दोषों के कारण तुमने जिस जन्मपरम्परा में भ्रमण किया है, कानों को मेरे वचनों का पात्र बनाकर उस जन्मपरम्परा को सुनो ॥ ३४ ॥ इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक पुण्डरीकिणी नाम की नगरी है। उसमें किसी समय धर्मस्वामी नाम का धर्मात्मा सेठ रहता था ॥ ३५॥ एक बार वह सेठ धनसम्पन्न संघ के साथ रत्नपुर नगर की ओर जा रहा था। उसी संघ के साथ तप के भाण्डार सागरसेन नाम के प्रसिद्ध महामुनि भी गमन कर रहे थे ॥ ३६ । एक समय चोरों के समूह ने उस संघ को लूट लिया जिससे शूरवीर तो मारे गये और भयभीत मनुष्य रत्नपुर के बीच मार्ग से ही भाग गये । तात्पर्य यह कि वह समस्त संघ छिन्न-भिन्न हो गया ॥ ३७ ॥ मुनिराज अकेले रहने से दिग्भ्रान्त हो गये। उन्होंने मधुवन में काशी नामक स्त्री के साथ एक पुरूरवा नाम के भील को देखा ॥३८॥ वह भील यद्यपि क्रूर था—दुष्टपरिणामी था भी तोउसने मुनिराज के कहने से धर्म ग्रहण कर. लिया सो ठीक ही है; क्योंकि साधु के आकस्मिक संयोग से भी कौन नहीं शान्त होता ? अर्थात् १. रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०
-समयसार। रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा । एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥८७
-ज्ञयाधिकार प्रवचनसार । बध्यते मच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत ॥२६ इष्टोपदेश । २. गिरो ब० ।