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वर्धमानचरितम्
इतीरितां भूपतिना मुमुक्षुणा निशम्य वाचं वचने विचक्षणः । क्षणं विचिन्त्यैवमुवाच नन्दनः प्रणामपूर्वं प्रणतारिमण्डलः ॥२२ अनारमनीनेति विचार्य धीमता नरेन्द्रलक्ष्मीरियमुज्झ्यते त्वया । असंमतां ते वदतात तामहं कथं प्रपद्येऽद्य विरोधिनीं मम ॥ २३ अवैषि किं त्वत्क्रमसेवया विना मुहूर्तमध्यासितुमक्षमं न माम् । स्वजन्महेतावर विन्दबान्धवे गलेऽपि किं तिष्ठति वासरः क्षणम् ॥२४ यथा पथियसि वर्तते सुतस्तथा पिता शास्ति तमात्मवत्सलम् । त्वयोपदिष्टो नरकान्धकूपकप्रवेशमार्गोऽयमनर्गलः कथम् ॥२५ प्रणम्य याचेऽहममोघदायकं भवन्तमाशु प्रणतार्तिहारिणम् । त्वया समं निष्क्रमणं मयापरं न कार्यमार्येति स जोषमास्थितः ॥२६ इति स्थितं निष्क्रमणैकनिश्चये सुतं विनिश्चित्य विपश्चितां वरः । अवोचदेवं द्विजमौक्तिदावलीस्फुरत्प्रभारा जिविराजिताधरः ॥२७ त्वया विना राज्यमपेतनायकं कुलमायातमिदं विनश्यति । न विद्यते चेद्यदि गोत्रसन्ततिः किमात्मजेभ्यः स्पृहयन्ति साधवः ॥२८ पितुर्वचो यद्यपि साध्वसाधु वा तदेव कृत्यं तनयस्य नापरम् । इति स्थितां नीतिमवेयुषोऽपि ते किमन्यथा सम्प्रति वर्तते मतिः ॥२९
के विजेता तुझ पर रखकर अब मैं पवित्र तपोवन को प्राप्त करना चाहता हूँ सो हे पुत्र ! तुम मेरी प्रतिकूलता को प्राप्त मत होओ-मेरे कार्य में बाधक मत होओ ।। २१ ।। इस प्रकार मोक्षाभिलाषी राजा के द्वारा कहे हुए वचनों को सुनकर वचन बोलने में निपुण तथा शत्रु समूह को विनम्र करने वाला नन्दन, क्षणभर विचार कर प्रणामपूर्वक इस प्रकार बोला ।। २२ ।। ' आत्मा के लिये हितकारी नहीं है' ऐसा विचार कर आप बुद्धिमान् के द्वारा यह राज लक्ष्मी छोड़ी जा रही है अतः जो आपके लिये इष्ट नहीं है तथा मेरे लिये भी विरुद्ध है उस राजलक्ष्मी को हे पिता जी ! मैं किस प्रकार प्राप्त करूँ ? यह आप ही कहें ।। २३ ।। आपके चरणों की सेवा के बिना मैं मुहूर्त भर भी ठहरने के लिये असमर्थ हूँ यह क्या आप नहीं जानते ? अपने जन्म के कारण सूर्य के चले जाने पर भी क्या दिन क्षणभर के लिये भी ठहरता है । ||२४|| अपने साथ स्नेह रखनेवाले पुत्र को पिता उसी प्रकार का उपदेश देता है जिस प्रकार से कि वह कल्याणकारी मार्ग में प्रवृत्त होता रहे फिर आपने मुझे नरकरूपी अन्धकूप में प्रवेश कराने वाले इस स्वच्छन्द मार्ग का उपदेश क्यों दिया ? || २५ || आप अमोघ दाता हैं तथा नम्रीभूत मनुष्यों की पीड़ा को हरनेवाले हैं इसलिये मैं प्रणाम कर आपसे यही याचना करता हूँ कि मुझे आपके साथ दीक्षा लेनी दी जावे । मुझे और कोई कार्य नहीं है इतना कहकर वह चुप बैठ गया ।। २६ ।। इस प्रकार विद्वानों में श्रेष्ठ पिता ने जब यह निश्चय कर लिया कि पुत्र एक दीक्षा के ही निश्चय में स्थित है तब वह दाँतरूपी मुक्तावली की देदीप्यमान कान्ति के समूह से अधरोष्ठ को सुशोभित करता हुआ इस तरह बोला ।। २७ ।। हे पुत्र ! कुलक्रम से चला आया यह राज्य तेरे बिना नायकविहीन होकर नष्ट हो जावेगा । यदि वंश की परम्परा नहीं है तो सत्पुरुष संतान की इच्छा क्यों करते हैं ? ॥ २८ ॥ पिता का वचन चाहे प्रशस्त हो चाहे अप्रशस्त हो, उसे करना ही पुत्र का काम है दूसरा नहीं' इस स्थिर नीति को जानते हुए भी तुम्हारी बुद्धि अन्यथा हो रही है ?