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वर्धमानचरितम्
"समन्वितोऽप्युज्ज्वलवर्णशोभया न कर्णिकारो लभते स्म सौरभम् । तथाहि लोके सकले न दृश्यते समाश्रयः कोऽपि समस्तसंपदाम् ॥५४ अनन्यसाधारण सौरभान्वितं दधानमप्युज्ज्वलपुष्पसंपदम् । न चम्पकं भृङ्गगणाः सिषेविरे कथं सुगन्धे मलिनात्मनां रतिः ॥५५ सरोरुहिण्या शिशिरात्यये चिरात्कथञ्चिदासादितपूर्व सम्पदा । वसन्तलक्ष्मीमभिवीक्षितुं मुदा महोत्पलं चक्षुरिवोदमील्यत ॥५६ अदृष्टपूर्वामिव पूर्ववल्लभां विहाय कौन्दीलतिकां मधुव्रताः । प्रपेदिरे पुष्पितमाधवीलतां चला हि लोके मधुपायिनां रतिः ॥५७ हिमव्यपायाद्विशदां सुखावहां कुमुद्वतीनां कुमुदाकरप्रियः । प्रसारयामास निशासु चन्द्रिकां मनोभुवः कीर्तिमिवोजितश्रियः ॥ ५८ स्वसौरभामोदितसर्वदिङ्मुखं समं मधुश्रीमंधुपाङ्गनागणैः । स्वयं सिषेवे तिलकं मनोरमं विशेष कीकर्तुमिवेच्छयात्मनः ॥५९ जगद्वशीकर्तुमलं मनोभुवा प्रयोजितं चूर्णमिवौषधैः परैः । मनोज्ञगन्धस्थिति दक्षिणा नलस्ततान सन्तानकपुष्पजं रजः ॥ ६०
सूर्य दक्षिणायन को छोड़ हिमालय के सन्मुख लौट गया था ॥ ५३ ॥ कनेर का वृक्ष उज्ज्वल रङ्गों की शोभा से युक्त होने पर भी सुगन्धि को प्राप्त नहीं कर सका था सो ठीक है; क्योंकि समस्त संसार
ऐसा कोई दिखाई नहीं देता जो निखिल सम्पदाओं का आधार हो ॥ ५४ ॥ चम्पा का फूल यद्यपि अनन्य साधारण - अन्यत्र न पाई जानेवाली सुगन्धि से सहित था और उज्ज्वल पुष्प रूप संपदा को धारण कर रहा था तो भी भ्रमरों के समूह उसकी सेवा नहीं कर रहे थे सो ठीक ही है; क्योंकि मलिनात्माओं - कलुषित हृदयवालों (पक्ष में श्याम वर्ण वालों) की सुगन्ध में प्रीति कैसे हो सकती है ? ।। ५५ ।। शिशिर ऋतु की समाप्ति होने पर चिरकाल बाद जिसने किसी तरह अपनी पूर्व - सम्पत्तिको प्राप्त किया था ऐसी कमलिनी ने वसन्तलक्ष्मी को देखने के लिये ही मानों हर्षवश नेत्र के समान कमल को खोला था अर्थात् कमलिनी में कमल पुष्प विकसित हुए थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानों कमलिनी ने वसन्त की शोभा को देखने के लिये हर्षवश नेत्र खोले हों ॥ ५६ ॥ भौंरे पूर्ववल्लभा - पहले की स्त्री के समान कुन्दलता को छोड़ कर फूलों से युक्त माधवी लता के पास इस प्रकार जा पहुंचे जैसे उसे कभी देखा ही नहीं हो - मानों वह उनके लिये नवीन वल्लभा हो सो ठीक ही है; क्योंकि लोक में मधुपायी जीवों की प्रीति चञ्चल होती ही है। ॥ ५७ ॥ चन्द्रमा रात्रियों में हिम का अभाव हो जाने से निर्मल तथा कुमुदिनियों के लिये सुखदायक चाँदनी को विस्तृत करने लगा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों सम्पत्तिशाली कामदेव
कीर्ति को ही विस्तृत कर रहा हो ॥ ५८ ॥ वसन्त लक्ष्मी, भ्रमरियों के समूह के साथ अपनी सुगन्ध से समस्त दिशाओं को सुगन्धित करनेवाले सुन्दर तिलक पुष्प की स्वयं सेवा कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो उस तिलक पुष्प को अपना तिलक बनाने की इच्छा से ही सेवा कर रही हो ॥ ५९ ॥ मलयसमीर, मनोहर गन्ध से युक्त, सन्तानक वृक्षों से उत्पन्न फूलों १. वर्णप्रकर्षे सति कणिकारं दुनोति निर्गन्धतया स्म चेतः ।
प्रायेण सामग्र्यविधी गुणानां पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः ॥ २८ ॥ २. तं चम्पकं ब० । ३. कौन्दीं लतिकां ब० ।
— कुमारसंभव तृ० स०
४. मधुपायिनां गणैः ब० ।