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द्वितीयः सर्गः
निवृत्य गच्छ स्वगृहं प्रियस्त्रियः सदा स्मरन् किं म्रियसे स्मरान्मुधा । इतीव निर्भयति स्म कोकिलः स्वकूजितैरध्वगमध्वचूतगः ॥ ६१ इति प्रफुल्लद्रुमराजि राजितं वनं समन्ताद्वनपालको भ्रमन् । तदेकदेशे मुनिमूजितावधिं प्रतिष्ठितं प्रौष्ठिलमैक्षत प्रभुम् ॥६२ प्रणम्य भक्त्या परया महामुनिं जगाम वेगाद्वनपालकः पुरीम् । तदीयमभ्यागमनं महीपतेरभीष्टमावेदयितुं मधोरपि ॥ ६३ "महाप्रतीहारनिवेदितागमः सदः स्थिताय प्रणतो महीभुजे । न्यवेदयद्दशतपुष्पपल्लवैर्मधु वचोभिश्च मुनीन्द्रमागतम् ॥६४ इतो निशम्योपवने स्थितं मुनि महीभृदुत्थाय मृगेन्द्रविष्टात् । पदानि सप्त प्रतिगम्यतां दिशं ननाम चूडामणिपीडितावेनिः ॥६५ धनं स्वनद्धाभरणैः समं तदा वितीर्य तस्मै बहु पारितोषिकम् । अदापयत्ख्यातमुनीन्द्रवन्दनाप्रयाणभेरीं नगरे नरेश्वरः ॥ ६६ प्रतिस्वनापूरितसर्वं दिङ्मुखं तदीयमाकर्ण्य रवं समन्ततः । जिनेन्द्र धर्मश्रवणोत्सुकात्मना विनिर्यये पौरजनेन तत्क्षणम् ॥६७ पुरःसरैरष्टनवैः पदातिभिः समन्वितं द्वारमुपेत्य वेगतः । अभीष्टवाहानधिरुह्य राजकं प्रतीक्षयामास नरेन्द्रनिर्गमम् ॥६८
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की पराग को सब ओर विस्तृत कर रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों कामदेव जगत् को वश में करने के लिये समर्थ, श्रेष्ठ औषधों से निर्मित चूर्ण को ही विस्तृत कर रहा है ॥ ६० ॥ मार्ग में पड़ने वाले आम्रवृक्षों पर बैठी कोयल अपनी कूक से पथिक को मानों यह डाँट ही दिखा रही थी कि लौटकर अपने घर जा, प्रिय स्त्रियों का स्मरण करता हुआ कामव्यथा से व्यर्थ ही क्यों मर रहा है ? ।। ६१ ।। इस प्रकार पुष्पित वृक्षावली से सुशोभित वन में सब ओर भ्रमण करते हुए वनपालक ने बन के एक देश में स्थित अवधिज्ञानी प्रोष्ठिल नामक मुनिराज को देखा ।। ६२ ।। परमभक्ति से महामुनि को प्रणाम कर वनपालक शीघ्र ही राजा को मुनिराज तथा वसन्तऋतु के अभीष्ट आगमन की सूचना देने के लिये नगरी की ओर गया ।। ६३ ।। प्रधान द्वारपाल के द्वारा जिसके आगमन की सूचना दी गई थी ऐसे वनपाल ने, सभा में स्थित राजा के लिये प्रणाम कर दिखाये हुए फूलों और पल्लवों से वसन्त की तथा वचनों के द्वारा मुनिराज के आगमन की सूचना दी ।। ६४ ।। ' मुनिराज वन में स्थित हैं, वनपाल से यह समाचार सुन राजा ने सिंहासन से उठकर तथा उस दिशा में सात डग जाकर उन्हें नमस्कार किया । नमस्कार करते समय राजा अपने चूडामणि से पृथ्वी को पीडित कर रहा था ।। ६५ ।। उस समय अपने शरीर पर धारण किये हुए आभूषणों के साथ वनपाल को पारितोषिकरूप में बहुत धन देकर राजा ने नगर में प्रसिद्ध मुनिराज की वन्दना के लिये प्रस्थान -भेरी बजवाई ।। ६६ ।। प्रतिध्वनि के द्वारा समस्त दिशाओं को व्याप्त करनेवाले भेरी के शब्द को सुनकर जिनेन्द्र धर्म को सुनने के लिये उत्कण्ठित नगरवासी जन तत्काल सब ओर से बाहर निकल पड़े ।। ६७ ।। आगे-आगे चलनेवाले आठ-नौ सेवकों सहित राजा लोग अभीष्ट वाहनों पर सवार हो शीघ्र ही द्वार पर जा पहुँचे और राजा के निकलने की १. महीप्रतीहार ब० ।
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पीडितावनिम् म० ।
३. विनिर्ययौ म० ।