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विषयसूची
तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से यह ज्ञात कर कि है तुझे संबोधनेके लिये हम दोनों आये हैं । लिये इस हिंसासे विरत हो आत्मकल्याणके मार्गमें लग भव सुन सिंह आँखोंसे आँसू बहाने लगा और मुनिराज उसके शिरपर हाथ फेरने लगे । मुनिराजने यह भी बताया कि तू दशम भवमें भरतक्षेत्रका तीर्थकर होगा।
तू भरतक्षेत्रका अन्तिम तीर्थंकर होनेवाला अब तेरी आयु एक मासकी रह गई है, इसमुनिराजके मुखसे अपने पूर्व
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१-५० १३२-१३९
इतना कहकर मुनियुगल तो आकाशमार्ग से अपने इष्टस्थानपर चले गये और सिंह वहीपर आहार पानीका त्याग कर संन्यासमें लीन हो गया उसे मृत समझकर हाथी उसकी गर्दनके बाल खींचते थे तो भी उसे रोष नहीं आता था । अन्तमें समताभावसे मरकर सौधर्मस्वर्ग में हरिध्वज देव हुआ। देवने अवधिज्ञानसे जानकर उपर्युक्त मुनिराजको वन्दना की और कहा कि हे नाथ! आपने ही मुझे इस पापरूपी कीचड़से निकाला है।
५१-७१ १३९-१४२
सगं १२
धातकीखण्ड द्वीपकी पूर्व दिशामें सीता नदीके तटपर जो कच्छा देश है उसके विजयार्ध पर्वतपर दक्षिण श्रेणीमें एक हेमपुर नामका नगर है । वहाँ कनकाभ नामका राजा था, उसकी स्त्रीका नाम कनकमाला था। हरिध्वजका जीव स्वर्गसे च्युत होकर इन्हींके कनकध्वज नामका पुत्र हुआ । कनकध्वज अत्यन्त सुन्दर था । उसे देखकर विद्याधर कन्याओं का मन उसकी ओर आकृष्ट होता रहता था ।
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१-२५ १४२ - १४७
पिताकी आज्ञा से कनकध्वजका कनकप्रभाके साथ विवाह हुआ। राजा कनकाभने संसारसे विरक्त हो दीक्षा ले ली। एक बार कनकध्वज अपनी प्रियाके साथ सुमेरु पर्वतके उद्यानमें गया। वहां उसने शिलापट्टपर विराजमान सुव्रत मुनिको देखकर उन्हें नमस्कार किया तथा धर्मका स्वरूप पूछा। उत्तरमें मुनिराजने रत्नत्रयरूप धर्मका वर्णन किया जिसे सुनकर उसे संसारसे विरक्ति हो गई और उसने जिनदीक्षा धारण कर ली। चिरकाल तक तपस्या कर वह आयुके अन्तमे कापिष्ठस्वर्ग में देवानन्द नामका देव
हुआ।
२६-७१ १४७-१५३
सर्ग: १३
अवन्ति देशकी वज्जयिनी नगरीमें राजा वज्र सेन रहते थे। उनकी रानीका नाम सुशीला था । देवानन्द देवका जीव इसी राजदम्पतीके हरिषेण नामका पुत्र हुआ । हरिषेण राजनीतिका भाण्डार था । राजा वज्रसेनने श्रुतसागर मुनिराज के समीप दीक्षा ले ली । हरिषेण श्रावकधर्मका पालन करता हुआ राज्य करने लगा ।
१-३१ १५३-१५८
सूर्यास्त हुआ। संध्याकी लाली आकाशमें छा गई। फिर अन्धकारका प्रसार और उसके अनन्तर चन्द्रमाकी चाँदनीका विस्तार हुआ । राजा हरिषेणने सुखसे रात्रि व्यतीत की । प्रातः काल मागधजनोंने मङ्गलगीतोंसे उसे जागृत किया । इस प्रकार राजा हरिषेणका समय सुखसे व्यतीत होने लगा । अन्तमें सुप्रतिष्ठ मुनिराजके पास दीक्षा लेकर उसने तपश्चरण किया जिसके प्रभावसे वह महाशुक्रस्वर्ग में प्रीतिकर देव हुआ।
३२-८४ १५८-१६७