________________
प्रथमः सर्गः
२
उद्भिद्यमाननवयौवनलब्धरन्ध्र
एकोऽप्यनेकविधचेष्टितमप्यलक्ष्य
अन्येद्युरात्मसमर्वाद्धतराजपुत्रै
स क्रीडितुं पितुरवाप्य परामनुज्ञां
झङ्कारितेऽलिविरुतैर्मलयानिलेन
तस्मिन्वने सरसचारुफले विहृत्य
मप्यन्यभूमिपतिभिर्विजितं न जातु ।
मन्तः स्थितं रिपुबलं स जिगाय 'धीरः ॥५१
रन्यैश्च मूलतनयैः सहितो जगाम ।
क्रीडावनं कृतकभूधरराजितान्तम् ॥५२
प्रेङ्खोलते कुसुमसौरभवासितान्ते ।
संतृप्तमिन्द्रियगणेन च तस्य तेषाम् ॥५३
वासीनमुच्चविमलस्फटिकाश्मपट्टे ।
मैक्षिष्ट शिष्टचरितं श्रुतसागराख्यम् ॥५४
तस्मिन्नशोकतरुचारुतले विकुन्या
पुञ्जीकृतात्मयशसोव मुनि जिताक्ष
प्रागेव तं प्रमुदितः प्रणतोत्तमाङ्ग
व्यालिङ्गितक्षितितलः प्रणनाम दूरात् ।
ऐसा यौवन, लीला के भाण्डारस्वरूप उस नन्दन को प्राप्त हुआ ।। ५० ।। प्रकट होते हुए नवीन यौवन से जिसे अवसर प्राप्त हुआ है, अन्य राजा लोग जिसे कभी नहीं जीत सके हैं तथा अनेक प्रकार की चेष्टाओं से युक्त होने पर भी जो बाह्य में दिखाई नहीं देता ऐसे अन्तरङ्ग में स्थित शत्रुसैन्य को उस धीर वीर ने अकेला होने पर भी जीत लिया था ।। ५१ ।। जो अपने साथ वृद्धि को प्राप्त हुए राजपुत्रों तथा मन्त्री आदि मूलवर्ग के अन्य पुत्रों से सहित था ऐसा वह नन्दन, पिता की उत्तम आज्ञा प्राप्त कर किसी दिन क्रीड़ा करने के लिये कृत्रिम पर्वतों से सुशोभित क्रीड़ावन में गया ।। ५२ ।। जो भ्रमरों की गुञ्जार से झङ्कृत हो रहा था, मलयसमीर से हिल रहा था, फूलों की सुगन्धि से जिसका कोना-कोना सुगन्धित हो रहा था तथा जिसमें स्वादिष्ठ और सुन्दर फल लगे हुए थे ऐसे उस वन में विहार कर नन्दन तथा उसके साथी अन्य मित्रों की इन्द्रियों का समूह संतुष्ट हो गया था ॥ ५३ ॥ क्षुद्र जीवों से रहित उस वन में उसने अशोक वृक्ष के नीचे अपने एकत्रित यश के समान सुशोभित स्फटिक के ऊँचे तथा सुन्दर शिलापट्ट पर विराजमान, उत्तम चारित्र के धारक श्रुतसागर नाम वाले जितेन्द्रिय मुनिराज को देखा ।। ५४ ।। देखते ही सर्वप्रथम उसने हर्षविभोर होकर दूर से उन मुनिराज को प्रणाम किया । प्रणाम करते समय वह नम्रीभूत मस्तक से १. वीरः ब० । २. मौल ब० । ३. प्रेङ्खालिते म० । ४. ददर्शाशोकमस्तोकस्तबकैस्तत्र पाटलम् । रागैश्छन्नमिवासन्नमुनीनां मुक्तमानसैः ||३८|| अधस्तात्तस्य विस्तीर्णे स्फाटिकोपलविष्टरे । तपः प्रगुणितागण्यपुण्यपुञ्ज इव स्थितम् ||३९||
- धर्मशर्माभ्युदय सर्ग ३