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वर्धमानचरितम् शेकुर्न तं मदयितुं क्षणमप्युदारं
शुद्धात्मनां न तु विकारकरं हि किञ्चित् ॥६४ अभ्यर्चयन् जिनगृहान्परया स भक्त्या
__ शृण्वम् जिनेन्द्रचरितानि महामुनिभ्यः। चिन्वन्त्रतानि विधिवन्नयति स्म कालं
धर्मानुरागमतयो हि भवन्ति भव्याः॥६५
[रुचिरा] उदूढवान्स परिवृढो महात्मनां न रागतः पितुरुपरोधतो वशी। निजश्रिया विजितसुराङ्गनाकृति प्रियङ्करां मनसिशयकवागुराम् ॥६६
[उपजातिः] व्रतानि सम्यक्त्वपुरःसराणि पत्युःप्रसादात्समवाप्य सापि। धर्मामृतं भूरि पपौ प्रियाणां सदानुकूला हि भवन्ति भार्याः ॥६७
[शिखरिणी] परा सम्पत्कान्तेविनयजलराशेविधुकला
वयस्या लज्जाया जयकदलिका पुष्पधनुषः । नताङ्गी तं वश्यं पतिमकृत सा साधुचरिता
न किंवा संधत्ते भुवि गुणगणानामुपचयः ॥६८ इत्यसगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते महाकाव्ये नन्दनसंभवो नाम प्रथमः सर्गः ॥१॥ राजपुत्र को पाकर उसे मत्त बनाने में समर्थ नहीं हो सके थे सो ठीक ही है, क्योंकि शुद्धात्माओं को विकार उत्पन्न करने वाली कोई वस्तु नहीं है अथवा कोई भी वस्तु शुद्धात्माओं में विकार उत्पन्न नहीं कर सकती ।। ६४ ॥ वह उत्कृष्ट भक्ति से जिन मन्दिरों की पूजा करता, महामुनियों से जिनेन्द्र भगवान् के चरित्रों को सुनता और विधिपूर्वक व्रतों का पालन करता हुआ समय को व्यतीत करता था सो ठीक ही है; क्योंकि भव्यजीव धर्म में अनुरक्त बुद्धि होते ही हैं ।। ६५ ।। महात्माओं में श्रेष्ठ उस जितेन्द्रिय युवराज ने पिता के आग्रह से प्रियङ्करा को विवाहा था, राग से नहीं। वह प्रियङ्करा अपनी शोभा से देवाङ्गनाओं की आकृति को जीतने वाली थी तथा कामदेव की अद्वितीय पाश थी ।। ६६ ।। वह प्रियङ्करा भी पति के प्रसाद से सम्यग्दर्शन सहित व्रतों को प्राप्त कर बहुत भारी धर्मामृत का पान करती थी सो ठीक ही है; क्योंकि स्त्रियाँ सदा पति के अनुरूप होती हैं ।। ६७ ।। जो कान्ति की अद्वितीय सम्पत्ति थी, विनयरूपी समुद्र को बढ़ाने के लिये चन्द्रकला थी, लज्जा की सखी थी, कामदेव की विजयपताका थी और उत्तम चारित्र को धारण करने वाली थी ऐसी नताङ्गी प्रियङ्करा ने युवराज नन्दन को अपने अधीन किया था सो ठीक ही है; क्योंकि गुणों के समूह का संचय पृथिवी पर क्या नहीं करता है ? ॥ ६८ ॥
इस प्रकार असगकृत श्रीवर्द्धमानचरित महाकाव्य में नन्दन की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला प्रथम सर्ग पूर्ण हुआ ॥१॥
१. वेलां ब०।
२. ऊढवान्स परिवृढो म०।
३. नार्यः म०।