________________
प्रथमः सर्गः द्वितीयः सर्गः
वंशस्थम् अथात्मजे विश्वगुणैकभाजने नरेश्वरो राज्यधुरां निधाय सः। तुतोष निश्चिन्ततया प्रियासखः पितुः सुपुत्रो हनुकूलवृत्तिमान् ॥१ कदाचिदुत्तुङ्गमृगेन्द्रविष्टरे निविष्टमालोक्य तमीश्वरं विशाम् । ननन्द लोकः सकलः सराजकः सुखाय केषां न निरीक्षणं प्रभोः ॥२ अजस्रमिच्छाधिकदानसम्पदा मनोरथाथिजनस्य पूरयन् । अवाप साम्यं सुमनोभिरन्वितो महीपतिर्जङ्गमकल्पभूरुहः ॥३ सतां प्रियः काञ्चनकूटकोटिषु ज्वलज्जपालोहितरत्नरश्मिभिः । जिनालयान्पल्लविताम्बरदुमानकारयद्धर्मधना हि साधवः॥४ कपोलमूलनुतदानलोलुपद्विरेफमालासितवर्णचामरैः। स पिप्रिये प्राभूतमत्तदन्तिभिः प्रिया न केषां भुवि भूरिदानिनः॥५ करान्गृहीत्वा परचक्रभूभृताममात्यमुख्यान्समुपागतान्स्वयम् । अनामयप्रश्नपुरःसरं विभुः स संबभाषे प्रभवो दि वत्सलाः ॥६
द्वितीय सर्ग
तदनन्तर राजा नन्दिवर्द्धन, समस्तगुणों के अद्वितीय पात्रस्वरूप पुत्र पर राज्य का भार रखकर स्त्री सहित निश्चिन्तता से सन्तुष्ट हुए सो ठीक ही है; क्योंकि उत्तम पुत्र पिता के अनुकूल चेष्टा से युक्त होता ही है ॥ १॥ किसी समय ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए राजा नन्दिवर्धन को देखकर अन्य राजाओं से सहित समस्त लोग हर्षित हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि राजा का दर्शन किनके सुख के लिये नहीं होता ? अर्थात् सभी के सुख के लिये होता है ॥२॥ वह राजा निरन्तर इच्छा से अधिक दानसम्पदा के द्वारा याचकों के मनोरथों को पूर्ण करता रहता था तथा सुमनस्विद्वानों ( पक्ष में फूलों ) से सहित रहता था इसलिये चलने-फिरते कल्पवृक्ष की तुलना को प्राप्त
था॥३॥ सज्जनों के प्रिय उस राजा ने सुवर्णमय शिखरों के अग्रभाग में लगे हुए देदीप्यमान पद्मरागमणियों की किरणों से आकाश के वृक्षों को पल्लवित-लाल-लाल किसलयों से युक्त करने वाले जिनमन्दिर बनवाये थे सो ठीक ही है क्योंकि साधु पुरुष धर्मरूपी धन से सहित होते ही हैं ॥ ४ ॥ जिनके कानों के समीप लटकने वाले चमर कपोलों के मूलभाग से झरते हुए मद जल के लोभी भ्रमरसमूह से काले-काले हो रहे थे ऐसे उपहार में आये हुए हाथियों से वह बहुत ही प्रसन्न होता था सो ठीक ही है; क्योंकि अधिक दानी-अत्यधिक मद से युक्त (पक्ष में अत्यधिक दान करने वाले लोग ) पृथ्वी में किन्हें प्रिय नहीं होते ? अर्थात् सबको प्रिय होते हैं ॥ ५ ॥ वह राजा अपने आप टेक्स लेकर आये हुए शत्रु राजाओं के मुख्यमन्त्रियों से कुशल समाचार पूछता हुआ प्रेम से
१. ह्यनुकूलवृत्तिः म० । हि करोति संमदम् ब० ॥
२. असक्त म० ब० प्रशक्त।