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| आनन्द की जीवन-नीति । ९ ही गुणमयी बन जाती है। वह अपनी पैनी नजर से दोषों के वज्र-पटल को भेद कर भी गुणों को ही देखता है। मनुष्य को गुणवान् होना चाहिए। ___आनन्द अभी तक श्रावक नहीं बना था। श्रावक बनने की कल्पना भी, तब तक उसके हृदय में उत्पन्न नहीं हुई थी। फिर भी सहज रूप में उसके जीवन का इतना विकास हो चुका था, कि वह श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित होते ही साधक की कोटि में पहुँच गया।
कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर
१९-८-५४
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