Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 178
________________ शुभ भावना ॥ १६५ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। मध्यस्थभावं विपरीति वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव। -आचार्य अमितगति, सामायिक पाठ (१) मैत्री भावना-संसार के समस्त प्राणियों के प्रति नि:स्वार्थ प्रेमभाव रखना; अपनी आत्मा के समान ही सबको सुख-दुःख की अनुभूति करने वाले समझना, मैत्री भावना है। जिस प्रकार मनुष्य अपने किसी विशिष्ट मित्र की हमेशा भलाई चाहता है, जहाँ तक अपने से हो सकता है समय पर भलाई करता है, दूसरों से उसके लिए भलाई करवाने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार जिस साधक का हृदय मैत्री भावना से परिपूरित हो जाता है, वह भी प्राणीमात्र की भलाई करने के लिए बहुत उत्सुक रहता है, सबको अपनेपन की बुद्धि से देखता है। वह किसी को भी किसी भी तरह का कष्ट नहीं देना चाहता। उसकी आदर्श भावना यही रहती है कि "मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे ।" अर्थात् 'मैं सब जीवों को मित्र की आँख से देखता हूँ, मेरा किसी से भी विरोध नहीं है, सबके प्रति प्रेम है।" (२) प्रमोद भावना-गुणवानों को, सज्जनों को, धर्मात्माओं को देखकर प्रेम से गद्गद हो जाना, मन में प्रसन्न हो जाना, प्रमोद भावना है। कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य अपने से धन सम्पत्ति, सुख वैभव, विद्या, बुद्धि अथवा धार्मिक भावना आदि में अधिक बढ़े हुए उन्नतिशील साथी को देखकर ईर्ष्या करने लगता है। यह मनोवृत्ति बड़ी ही दूषित है। जब तक इस मनोवृत्ति का नाश न हो जाय, तब तक अहिंसा सत्य आदि कोई भी सद्गुण अन्तरात्मा में टिक नहीं सकता। इसीलिए भगवान् महावीर ने ईर्ष्या के विरुद्ध प्रमोद भावना का मोर्चा लगाया है। ___ इस भावना का यह अर्थ नहीं कि आप दूसरों को उन्नत देखकर किसी प्रकार का आदर्श ही न ग्रहण करें, उन्नति के लिए प्रयत्न ही न करें, और सदा दीन हीन ही बने रहें। दूसरों के अभ्युदय को देखकर यदि अपने को भी वैसा ही अभ्युदय इष्ट हो, तो उसके लिए न्याय नीति के साथ प्रबल पुरुषार्थ होना चाहिए, उनको आदर्श बनाकर दृढ़ता से कर्म पथ पर अग्रसर होना चाहिए। शास्त्रकार तो यहाँ दुर्बल मनुष्यों के हृदय में दूसरों के अभ्युदय को देखकर जो ढाह होता है, केवल उसे दूर करने का आदेश देते हैं। ___ मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सदैव दूसरों के गुणों की ओर ही अपनी दृष्टि रखे, दोषों की ओर नहीं। गुणों की ओर दृष्टि रखने से गुण-ग्राहकता के भाव उत्पन्न होते हैं, ओर दोषों की ओर दृष्टि रखने से अन्तःकरण पर दोष ही दोष छा जाते हैं। मनुष्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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